समकालीन क्षणिका खण्ड/अंक-02 अप्रैल 2017
रविवार : 12.11.2017
सीमा स्मृति
01.
कुदरत लिखती रही
हर दिन
जिन्दगी की किताब के पन्ने
हम किताबों में
खोजते रहे ज़िन्दगी।
02.
मत किया करो
वक़्त से कोई सवाल
उत्तर के इंतज़ार में/अक्सर
जिन्दगी की लय बिगड़ जाती है।
03.
एक सत्य
बेल से लिपटे सर्प-सा
मन की देहरी पे
सरसराने लगा
गूँजती रही फुँकार
कुछ सर्प-
बिल नहीं खोजा करते।
04.
जीया दर्द
खोजती रही खिड़कियाँ
क्यों रही अनजान
दरवाजे की अहमियत से!
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