Sunday, December 25, 2016

डॉ. सतीश दुबे साहब पर विशेष पोस्ट

समकालीन क्षणिका             खण्ड-01                  अप्रैल 2016



रविवार  :  25.12.2016 




श्रद्धांजलि 
आज बेहद दुःख की घड़ी है। लघुकथा के व्यास कहे जाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सतीश दुबे साहब अपना शरीर त्यागकर परमात्मा में विलीन हो गए। भले वह कथा के क्षेत्र में प्रमुखतः प्रतिष्ठित हुए, लेकिन कविता, हाइकु एवं क्षणिका सहित अन्यान्य विधाओं में भी उनका योगदान स्मरणीय है। विगत वर्ष जब उनके हीरक जयन्ती वर्ष के उपलक्ष्य में अविराम साहित्यिकी का अंक प्रकाशित हुआ था तो उनकी कुछ क्षणिकाएँ हमारे संज्ञान में आई थीं, जिन्हें अविराम साहित्यिकी में प्रकाशित भी किया गया था। इससे पूर्व अविराम साहित्यिकी के क्षणिका विशेषांक के लिए भी उन्होंने एक महत्वपूर्ण आलेख के माध्यम से क्षणिका पर हम सबका मार्गदर्शन किया था। आज इस मंच पर हम उनकी क्षणिकाओं का स्मरण करते हुए डॉ. सतीश दुबे साहब को अपनी और इस मंच की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। 


डॉ. सतीश दुबे साहब की क्षणिकाएँ 


01. सूत्रधार
काठ की पुतलियां
नाचने के लिए
कला प्रदर्शन के लिए
तब-
हरकत में आती हैं
जब-
सूत्रधार को
भूख सताती है।

02. रहम दिल
तपते सूरज को-
पसीना पोंछते देख
रहमदिल बादल ने
अपनी छाया में ले
फुहारों की ठंडक-
शुरू कर दी।

03. संकेत
कैनवास पर-
चलने वाली कूंची
झुकने लगी है
शायद-
कलाकार बुढ़या गया है।

04. वापसी
मैं इसी शहर में
वापस लौट आया हूँ।

मुझे-
मेरा गाँव तो मिला ही नहीं!

Sunday, December 18, 2016

प्रथम खण्ड के क्षणिकाकार-31

समकालीन क्षणिका             खण्ड-01                  अप्रैल 2016


रविवार  :  18.12.2016 
क्षणिका की लघु पत्रिका ‘समकालीन क्षणिका’ के खण्ड अप्रैल 2016 में प्रकाशित डॉ. सतीश चन्द्र शर्मा ‘सुधांशु’ जी की क्षणिकाएँ।


सतीश चन्द्र शर्मा ‘सुधांशु’



01. आहट
पीपल के/हरे-भरे पत्ते
पीले पड़ने लगे
अचानक!
लगता है/होने वाला है
किसी का आगमन!

02. क्षमता
जरा सा दबाव पड़ा
कि सूखे पत्तों से
चरमरा उठे।

सहनशक्ति कोई
कैक्टस से 
सीखे!

03. परिचय
समय 
किसी की पहचान
इस तरह खोता है
दसवीं में पढ़ रहा
रेखाचित्र : बी. मोहन नेगी 
मेरा पोता बोला-
दादू! अन्तर्देशीय पत्र
क्या होता है?

04. समर्पण
सूरजमुखी का
रुख सदैव
सूरज के मुख की ओर
रहता है
शुक्र है/कहीं तो 
वफादारी शेष है!
  • ब्रह्मपुरी, पिन्दारा रोड, बिसौली-243720, जिला बदायूँ, उ.प्र./मोबा. 9451644006

प्रथम खण्ड के क्षणिकाकार-30

समकालीन क्षणिका             खण्ड-01                  अप्रैल 2016


रविवार  :  18.12.2016
क्षणिका की लघु पत्रिका ‘समकालीन क्षणिका’ के खण्ड अप्रैल 2016 में प्रकाशित प्रो. हितेश व्यास जी की क्षणिका।



हितेश व्यास






शब्द और हरकत

मेरे पास शब्द थे
तुम्हारे पास हरकत
तुम्हारी हरकतों ने
मेरे शब्दों को जन्म दिया
मेरे शब्दों ने पैदा की
तुम में हरकत
  • बी-406, रवि पार्क, हांडेवाडी रोड, हड़पसर, पुणे-411028, महाराष्ट्र/मोबा. 09730987500

Sunday, December 11, 2016

प्रथम खण्ड के क्षणिकाकार-29

समकालीन क्षणिका             खण्ड-01                  अप्रैल 2016


रविवार  :  11.12.2016  

क्षणिका की लघु पत्रिका ‘समकालीन क्षणिका’ के खण्ड अप्रैल 2016 में प्रकाशित श्री राजकुमार सचान जी की व्यंग्य क्षणिकाएँ।


राजकुमार सचान










01. कंस
कैसे बढ़ेगा
बेटे का वंश
जब आधुनिक कंस
कोख में ही
मिटा देता है
बेटी का अंश।

02. गाँधी
अखबारों में गाँधी
दरबारों में गाँधी
रेखाचित्र : डॉ. सुरेंद्र वर्मा 
अधिकारी-नेताओं के 
भाषण में गाँधी
पर क्या है किसी के
चरित्र में गाँधी?

03. आँख का पानी
उनकी आँख का पानी
उतर गया
बड़ी तेजी से बैंक-बैलेंस
सँवर गया
  • 421, गुंजन विहार, बर्रा-6, कानपुर-208027, उ.प्र./मोबा. 09044818353

प्रथम खण्ड के क्षणिकाकार-28

समकालीन क्षणिका             खण्ड-01                  अप्रैल 2016


रविवार  :  11.12.2016  

क्षणिका की लघु पत्रिका ‘समकालीन क्षणिका’ के खण्ड अप्रैल 2016 में प्रकाशित सुश्री ज्योत्स्ना प्रदीप जी की क्षणिकाएँ।


ज्योत्स्ना प्रदीप




01. मज़बूत दुर्ग
वो बुज़ुर्ग है!
नहीं...,
उसकी छत्र-छाया में
बैठो तो सही
आज के तूफानों से बचाने वाला
वो ही तो
मज़बूत दुर्ग है।

02. अन्तर
नागफनी..
काँटों से भरी... पर सीधी,
उसे छूने से हर कोई कतराता है।
छाया चित्र  : उमेश महादोषी 

वो छुई-मुई....
हया से सिमटी,
जो चाहे उसे
यूँ ही छू जाता है।

03. घायल
वो पत्ता
सूखा, टूट गया
घायल है ज़मीं पर
सँभलकर चलना
चीखेगा बहुत
पाँव रखा जो....

04. भेड़िया
गुलाबो का कहना था-
जो कल गुज़र गया,
वो आदमी नहीं था
भेड़िया था, बस....
मेमने का लिबास पहना था

05. स्पर्श
रात्रि के हल्के स्पर्श से
पौधा सो गया
मानो कोई अनाथ!
सपने में लिये
माँ का हाथ। 
  • मकान-32, गली नं.-9, न्यू गुरुनानक नगर, गुलाब देवी हॉस्पिटल रोड, जालंधर (पंजाब)

Sunday, December 4, 2016

प्रथम खण्ड : मध्यान्तर मन्तव्य-01

क्षणिका विमर्श  
यहाँ प्रस्तुत विचार ‘अविराम साहित्यिकी’ के क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) में प्रकाशित जिन आलेखों से लिए गए हैं, उन एवम क्षणिका विषयक अन्य आलेखों को निम्न लिंक पर मूल रूप में पढ़ा जा सकता है http://aviramsahitya.blogspot.in/search/label/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%20%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6

{क्षणिका की विकास यात्रा के सहयात्री के रूप में उसके साम्प्रतिक स्वरूप को समझना जरूरी है। इस दृष्टि से ‘अविराम साहित्यिकी’ के क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) में प्रकाशित कई आलेखों को आधार भूमि के तौर पर देखा जा सकता है। निश्चित ही हमारा उद्देश्य क्षणिका को सतही लेखन से बचाकर आगे ले जाना है, अतः उन नए साथियों, जो क्षणिका को एक विधा के रूप में समझे बिना ही इस कारवाँ का हिस्सा बनने का हौसला रखते हैं, के समक्ष हम ‘अविराम साहित्यिकी’ के उक्त विशेषांक में शामिल आलेखों से अनुभवी और कविता के दायरे में हमारा मार्गदर्शन करने में सक्षम कुछ लेखकों के मन्तव्य की पुनर्प्रस्तुति यहाँ कर रहे हैं। निःसन्देह ये विचार ठेठ वक्तव्यों एवं अन्य सतही लेखन से इतर हमें क्षणिका के साम्प्रतिक काव्य रूप की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं। प्रस्तुत हैं सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. सतीश दुबे साहब के विचार।}  


डॉ. सतीश दुबे



काव्य-विधा के अन्तर्गत परम्परागत छन्दबद्ध लेखन के समांतर छन्दमुक्त रचना-शैली के आविर्भाव से कविता अधिक समृद्ध, विकसित तथा विभिन्न आयामों की ओर अग्रसर हुई। विभिन्न आन्दोलनों ने वस्तु, भाषा-शैली तथा वैचारिक सोच के जरिये परम्परागत मिथकों को खारिज कर कविता को सामान्य-जन तथा समसामयिक स्थितियों से सम्बद्ध किया। कविता राजवाड़ों, आदर्श-नैतिक उद्बोधन, मंदिर-मस्जिद की दीवारों से मुक्त होकर गांवों की पगडंडी, सड़क से गुजरती हुई संसद तक पहुंची। स्पष्ट है इन समस्त बदलती स्थितियों में बंधी -बंधाई चौखट से परे सृजकों ने रचनात्मक स्तर पर उन्मुक्त अभिव्यक्ति के लिए कविता को विभिन्न आकार-प्रकार के प्रयोगों से संवारा। इसे संयोग की अपेक्षा सोच की मानसिक एकरूपता ही कहा जाना चाहिए कि इस दौर के करीब प्रत्येक कवि ने शब्दों की मितव्ययिता के साथ ऐसी कविताएं रचीं, जो चंद पंक्तियों में प्रभावी काव्यास्वाद करा सकें। कालांतर में इसी संक्षिप्त अभिव्यक्ति के फार्मेट ने क्षणिका नामजद जामे के साथ कविता-संसार में दस्तक दी।
    जैसाकि नाम से जाहिर है क्षणिका के कथ्य का रिश्ता व्यक्ति की जिन्दगी से जुड़े हर उस पल से होता है, जिसे महसूस करते हुए भी वह उसकी आंतरिक परत में छिपे सूक्ष्म यथार्थ से अपने को एकाकार नहीं कर पाता। कवि अपनी संवेदनशील दृष्टि से उजागर कर उसमें निहित विराट प्रभाव से श्लोक की तरह कुछ शब्द पंक्तियों में साक्षात्कार कराता है। जीवन-यथार्थ ही नहीं मनोभाव, मनोविकार, मानवीय चरित्र, विसंगति-विद्रूपता जैसे अनेक वे विषय जो रचनाकार के लिए साहित्यिक-सामाजिक सरोकारों के सन्दर्भ में रचनात्मक धरातल पर रेखांकित करना जरूरी होते हैं, क्षणिका की वस्तु-परिधि में समाहित रहते हैं। क्षणिका की असली शक्ति उसकी प्रस्तुति या सम्प्रेष्य क्षमता होती है। इसलिए जरूरी है कि विषयवस्तु में संक्षिप्त शब्दों और पंक्तियों में इस प्रकार तराशा जाय कि अंतिम पंक्ति से चमत्कार नहीं अर्थ-गाम्भीर्य का काव्यास्वाद महसूस हो सके। हायकु की तरह क्षणिका की प्रत्येक पंक्ति शब्द-संयोजन मात्र नहीं वस्तु की प्रभान्विति के सांकेतिक अर्थ या बिम्ब से सम्बन्धित होती है। क्षणिका चूंकि कविता की अपने तात्विक अस्तित्व के साथ महत्वपूर्ण शैली होती है, इसलिए सम्प्रेष्य-स्तर पर जरूरी है कि उसमें कविता सी तासीर भरी ताज़गी हो।
     उपर्युक्त रचना प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में क्षणिका क्षण विशेष के संवेदनात्मक वैचारिक मंथन को सीमित शब्द रंगों से सूक्ष्म फलक पर रूपायित करती काव्याभिव्यक्ति है। क्षणिका, एक बिम्ब, एक विचार, एक प्रभाव को कुछ पंक्तियों में शिद्दत के साथ व्यक्त करती कविता है। क्षणिका का अन्त विचारों या भावों के विस्फोट से नहीं अन्तर्मन में समाहित होकर संवाद या चिंतन के साथ होता है।

  • 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)/मोबा. 09617597211

प्रथम खण्ड : मध्यान्तर मन्तव्य-02

क्षणिका विमर्श  
यहाँ प्रस्तुत विचार ‘अविराम साहित्यिकी’ के क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) में प्रकाशित जिन आलेखों से लिए गए हैं, उन एवम क्षणिका विषयक अन्य आलेखों को निम्न लिंक पर मूल रूप में पढ़ा जा सकता हैhttp://aviramsahitya.blogspot.in/search/label/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%20%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6



{क्षणिका की विकास यात्रा के सहयात्री के रूप में उसके साम्प्रतिक स्वरूप को समझना जरूरी है। इस दृष्टि से ‘अविराम साहित्यिकी’ के क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) में प्रकाशित कई आलेखों को आधार भूमि के तौर पर देखा जा सकता है। निश्चित ही हमारा उद्देश्य क्षणिका को सतही लेखन से बचाकर आगे ले जाना है, अतः उन नए साथियों, जो क्षणिका को एक विधा के रूप में समझे बिना ही इस कारवाँ का हिस्सा बनने का हौसला रखते हैं, के समक्ष हम ‘अविराम साहित्यिकी’ के उक्त विशेषांक में शामिल आलेखों से अनुभवी और कविता के दायरे में हमारा मार्गदर्शन करने में सक्षम कुछ लेखकों के मन्तव्य की पुनर्प्रस्तुति यहाँ कर रहे हैं। निःसन्देह ये विचार ठेठ वक्तव्यों एवं अन्य सतही लेखन से इतर हमें क्षणिका के साम्प्रतिक काव्य रूप की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं। प्रस्तुत हैं सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. सुरेन्द्र वर्मा साहब के विचार।}


डॉ. सुरेन्द्र वर्मा






लघुकाय कविताओं के लिए ‘क्षणिका’ शब्द का पहली बार प्रयोग रवींद्रनाथ ठाकुर ने किया था, उनकी छोटी-छोटी रचनाओं का काव्य-संग्रह ‘क्षणिका’ नाम से प्रकाशित हुआ था, बाद में ‘स्फुलिंग’ नाम के काव्य-संग्रह में उन्होंने कुछ और छोटी रचनाएं दीं, जिनमें छोटी होने के बावजूद अर्थव्यंजना और भावों की गहनता स्पष्ट परिलक्षित होती है। रवींद्रनाथ की इन कविताओं की चर्चा अधिक नहीं हुई है, न ही भारतीय भाषाओं में -हिंदी सहित- इनका अनुवाद ही हुआ है। हां, ‘स्ट्रे बर्ड्स’ शीर्षक से ऐसी कविताओं का एक संकलन अंग्रेज़ी में ज़रूर आया है।
     क्षणिका का क्या अर्थ है और क्या सभी लघुकाय कविताओं के लिए यह एक उपयुक्त संज्ञा है? हिंदी शब्द-कोश में क्षणिका का केवल एक ही अर्थ मिलता है, बिजली। मेघ-द्युति क्षणभर के लिए चमकती है अतः, क्षणिका मेघ-विद्युत है। ज़ाहिर है, क्षणिका शब्द क्षण से बना है और क्षण के उपयोग के अनुसार, कई अर्थ हो सकते हैं। यह एक लमहा है, समय की गति का एक बिंदु है। साथ ही यह ‘अवसर’ और ‘अवकाश’ के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। शुभ काल के लिए, उत्सव और आनंद के अर्थ में, भी क्षण का प्रयोग देखा जा सकता है।...
     रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी लघु कविताओं को क्षणिकाएं क्यों कहा होगा? क्या सिर्फ इसलिए कि वे लघुकाय हैं और क्षण भर में उन्हें पढ़ा/सुना जा सकता है। याद कीजिए, जापानी हाइकु को ‘एक श्वासी’ कविता कहा गया है। हम एक सांस में उसे पढ़ जाते हैं. क्या छोटी कविताएं क्योंकि वे निमिश मात्र में पढ़ी जा सकती हैं, केवल इसीलिए क्षणिकाओं की कोटि में आती हैं? लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि रवींद्रनाथ क्षणिकाओं के रूप में उनमें कुछ और भी तलाश करते हैं। वे उनमें विद्युत की चमक भी देखते हैं। शायद इसी बात पर बल देने के लिए उन्होंने अपनी छोटी कविताओं के एक अन्य संग्रह को ‘स्फुलिंग’ कहा। ‘स्फुलिंग’ अग्नि कण या चिंगारी को कहते हैं। चिंगारी में निःसंदेह, वह कितनी भी क्षणिक क्यों न हो, एक चमक होती है और वह भड़क भी सकती है। उसकी तासीर बिलाशक तेज़ है। सही जगह मिल जाए तो आग लगा दे। कविता में जब तक यह चमक और भावों को उत्तेजित करने की तासीर न हो हम उसे कविता भला कैसे कह सकते हैं? जब हम क्षणिकाओं की बात करते हैं तो ये केवल ऐसी ही लघु कविताएं हो सकती हैं जो हमारी चेतना को एक नई चमक से आलोकित कर दें और यदि ज़रूरी हो तो उसे कर्म के लिए प्रज्ज्वलित भी करें। मुझे लगता है रवींद्रनाथ ठाकुर के मन में लघु कविताओं को ‘क्षणिकाएं’ या ‘स्फुलिंग’ कहते समय ये सारी बातें अवश्य रही होंगीं।

  • 10, एच.आई.जी.; 1-सर्कुलर रोड, इलाहाबाद (उ.प्र.)/मोबा. 09621222778

प्रथम खण्ड : मध्यान्तर मन्तव्य-03

क्षणिका विमर्श  
यहाँ प्रस्तुत विचार ‘अविराम साहित्यिकी’ के क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) में प्रकाशित जिन आलेखों से लिए गए हैं, उन एवम क्षणिका विषयक अन्य आलेखों को निम्न लिंक पर मूल रूप में पढ़ा जा सकता हैhttp://aviramsahitya.blogspot.in/search/label/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%20%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6

{क्षणिका की विकास यात्रा के सहयात्री के रूप में उसके साम्प्रतिक स्वरूप को समझना जरूरी है। इस दृष्टि से ‘अविराम साहित्यिकी’ के क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) में प्रकाशित कई आलेखों को आधार भूमि के तौर पर देखा जा सकता है। निश्चित ही हमारा उद्देश्य क्षणिका को सतही लेखन से बचाकर आगे ले जाना है, अतः उन नए साथियों, जो क्षणिका को एक विधा के रूप में समझे बिना ही इस कारवाँ का हिस्सा बनने का हौसला रखते हैं, के समक्ष हम ‘अविराम साहित्यिकी’ के उक्त विशेषांक में शामिल आलेखों से अनुभवी और कविता के दायरे में हमारा मार्गदर्शन करने में सक्षम कुछ लेखकों के मन्तव्य की पुनर्प्रस्तुति यहाँ कर रहे हैं। निःसन्देह ये विचार ठेठ वक्तव्यों एवं अन्य सतही लेखन से इतर हमें क्षणिका के साम्प्रतिक काव्य रूप की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं। प्रस्तुत हैं सुप्रसिद्ध साहित्यकार-सम्पादक श्री रामेश्वर काम्बोज हिमांशु के विचार।}



रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'



....सही समय पर किसी कण का, किसी क्षण का, किसी स्वनिम का सही प्रयोग किया तो सार्थक रचना का निर्माण होता है, चाहे वह जीवन-जगत हो या काव्य हो। जीवन भर कुछ न किया जाए तो जीवन निर्रथक, क्षण भर में जो सार्थक कर लिया जाए तो यश, जीवन भर अच्छा करते-करते अन्ततः कुछ बुरा कर दिया जाए तो सारे शुभकर्मों की परिणति अपयश में हो सकती है। यही सब काव्य के भी साथ है।
     क्षण या काल के विस्तार की गहनता, उसकी नब्ज़ पर पकड़ किसी रचना की प्राण शक्ति बनती है। रचना का महत्त्व उसके स्वरूप दोहा, चौपाई, छन्दोबद्ध, छन्दमुक्त, क्षणिका, हाइकु आदि से नहीं है, वरन् उसके कथ्य से है, कथ्य की प्रस्तुति से है, उसमें निहित भाव-संवेदना से है। केवल छोटी रचना लिखना या बड़ी रचना लिखना किसी महत्त्व का आधार नहीं बन सकता। आकारगत लघुता के कारण फुलचुही महत्त्वहीन नहीं हो जाती और बड़े आकार के कारण चील का महत्त्व नहीं बढ़ जाता। कारण- रचना में कही बात पाठक की संवेदना को, चिन्तन को कितना प्रभावित करती है, वही उस रचना का जीवन है। क्षणिका के सन्दर्भ में भी मैं यही बात कहना चाहूँगा कि समय के किसी महत्त्वपूर्ण क्षण को आत्मसात् करके संश्लिष्ट (संक्षिप्त नहीं) रूप में किया गया काव्य-सर्जन ही क्षणिका है। क्षणिका किसी लम्बी कविता का सारांश नहीं है और न मन बहलाने के लिए गढ़ा गया कोई चुटकुला या चुहुलबाज़ी-भरा कोई कथन। भाव की अभिकेन्द्रिकता, भाषा का वाग्वैदग्ध्य-पूर्ण प्रयोग एक दिन का काम नहीं, वरन् गहन चिन्तन-मनन, अनुभूत क्षण की सार्थकता और सार्वजनीनता पर निर्भर है।...
     क्षणिका-एक लक्ष्य (टारगेट) और एक ही गोली, यदि गोली लक्ष्य से भटकी तो उपलब्धि- शून्य अंक। यह मेले का खेल नहीं कि दस में से नौ टारगेट पा गए तो अच्छे निशानेबाज हो जाएँगे। शत्रु सामने हो तो कोई भी कुशल सैनिक जिसके पास एक ही गोली बची हो, अपना लक्ष्य नहीं खोना चाहेगा।
    ...न शूल-सी चुभे न कील-सी खुभे, बस आस्तीन बनकर आँसू पोंछ दे तो क्षणिका सार्थक हो जाएगी। आस्तीन बनकर आँसू पोंछने का मेरा अपना आशय है- वह जनमानस की प्रतिनिधि बने। किसी दोहे, चौपाई, मुक्तक को तोड़कर क्षणिका बनाने या तुकबन्दी का अनावश्यक शिरस्त्राण पहनाने की आवश्यकता नहीं है।...

  • एफ-305, छठा तल, मैक्स हाइट, सेक्टर-62, कुण्डली-131023, सोनीपत (हरि.)/मोबा. 09313727493

प्रथम खण्ड : मध्यान्तर मन्तव्य-04

क्षणिका विमर्श  
यहाँ प्रस्तुत विचार ‘अविराम साहित्यिकी’ के क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) में प्रकाशित जिन आलेखों से लिए गए हैं, उन एवम क्षणिका विषयक अन्य आलेखों को निम्न लिंक पर मूल रूप में पढ़ा जा सकता हैhttp://aviramsahitya.blogspot.in/search/label/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%20%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6


{क्षणिका की विकास यात्रा के सहयात्री के रूप में उसके साम्प्रतिक स्वरूप को समझना जरूरी है। इस दृष्टि से ‘अविराम साहित्यिकी’ के क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) में प्रकाशित कई आलेखों को आधार भूमि के तौर पर देखा जा सकता है। निश्चित ही हमारा उद्देश्य क्षणिका को सतही लेखन से बचाकर आगे ले जाना है, अतः उन नए साथियों, जो क्षणिका को एक विधा के रूप में समझे बिना ही इस कारवाँ का हिस्सा बनने का हौसला रखते हैं, के समक्ष हम ‘अविराम साहित्यिकी’ के उक्त विशेषांक में शामिल आलेखों से अनुभवी और कविता के दायरे में हमारा मार्गदर्शन करने में सक्षम कुछ लेखकों के मन्तव्य की पुनर्प्रस्तुति यहाँ कर रहे हैं। निःसन्देह ये विचार ठेठ वक्तव्यों एवं अन्य सतही लेखन से इतर हमें क्षणिका के साम्प्रतिक काव्य रूप की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं। प्रस्तुत हैं सुप्रसिद्ध समीक्षक डॉ. पुरुषोत्तम दुबे के विचार।}

डॉ. पुरुषोत्तम दुबे




क्षणिका, कुछ अर्थवान् शब्दों का विराट सम्मोहन है। स्वाति की एक बूँद कदली पर गिरकर कपूर बनती है जैसे, समुद्र में गिरकर मोती बनती है जैसे, वैसे ही किसी एक क्षण की उपलब्धता से हाथ आया रचनात्मक विचार ‘क्षणिका’ को जन्म देता है। मन भर फूलों को पीसकर इत्र की एक बूँद हासिल होती है जैसे, वैसे ही एक शब्द गुणात्मक विचारों के मंथन से पैदा होता है और समान वजन के शब्दों को संग्रहीत कर अपनी जमावट से ‘क्षणिका’ का ‘कैनवस’ रचता है।...
    क्षण की नैमत पाकर लिखी जाये, क्षणिका वही है। क्षणिका बंद मुट्ठी के खुलने का रहस्य नहीं प्रत्युत क्षणिका एक विचार है, जो सूत्र शैली में लिखा जाता है। भाव-प्रवणता के साथ कौतूहल खड़ा करना, क्षणिका का स्वभाव है। ऐसे स्वभाव का निर्वहन उसी क्षणिका-लेखक को करना आता है, जो अर्थों की व्यापक सम्पदा को एक ‘शब्द’ के जिगर में उतार सकता है।

  • ‘शशीपुष्प’, 74 जे/ए, स्कीम नं. 71, इन्दौर-452009 (म.प्र.)/मोबा. 09407186940

प्रथम खण्ड : मध्यान्तर मन्तव्य-05

क्षणिका विमर्श  
यहाँ प्रस्तुत विचार ‘अविराम साहित्यिकी’ के क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) में प्रकाशित जिन आलेखों से लिए गए हैं, उन एवम क्षणिका विषयक अन्य आलेखों को निम्न लिंक पर मूल रूप में पढ़ा जा सकता हैhttp://aviramsahitya.blogspot.in/search/label/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%20%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6

{क्षणिका की विकास यात्रा के सहयात्री के रूप में उसके साम्प्रतिक स्वरूप को समझना जरूरी है। इस दृष्टि से ‘अविराम साहित्यिकी’ के क्षणिका विशेषांक (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) में प्रकाशित कई आलेखों को आधार भूमि के तौर पर देखा जा सकता है। निश्चित ही हमारा उद्देश्य क्षणिका को सतही लेखन से बचाकर आगे ले जाना है, अतः उन नए साथियों, जो क्षणिका को एक विधा के रूप में समझे बिना ही इस कारवाँ का हिस्सा बनने का हौसला रखते हैं, के समक्ष हम ‘अविराम साहित्यिकी’ के उक्त विशेषांक में शामिल आलेखों से अनुभवी और कविता के दायरे में हमारा मार्गदर्शन करने में सक्षम कुछ लेखकों के मन्तव्य की पुनर्प्रस्तुति यहाँ कर रहे हैं। निःसन्देह ये विचार ठेठ वक्तव्यों एवं अन्य सतही लेखन से इतर हमें क्षणिका के साम्प्रतिक काव्य रूप की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं। प्रस्तुत हैं सुप्रसिद्ध युवा समालोचक श्री जितेन्द्र जौहर के विचार।}

जितेन्द्र जौहर




जीवन की अनुभूतियों का प्रत्येक क्षण महत्त्वपूर्ण होता है। ‘क्षणिका’ किसी क्षण-विशेष की तीव्र अनुभूति को गहन अभिव्यक्ति देने वाली विधा है। हमारे मस्तिष्क में उभरने वाले विचारों की कौंध कमोवेश ‘मेघविद्युत’ से अपना सादृश्य स्थापित करती है। यहाँ ग़ौरतलब है कि ‘क्षणिका’ का एक अर्थ ‘मेघविद्युत’ भी है, जिसे अंग्रेज़ी में ‘लाइटनिंग’ कहा जाता हैं। ‘क्षणिका’ को इस विशिष्टार्थ से जोड़ते ही स्थिति कमोवेश स्पष्ट हो जाती है। जिस प्रकार आकाशीय बिजली की कौंध से चतुर्दिक एक दीप्ति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार हर श्रेष्ठ क्षणिका स्वयं में ‘अर्थ-दीप्ति’ का स्रोत समेटे होती है। उसमें घनवल्लरी की-सी ‘गतिमयता’ होती है। उसमें ‘अर्थ का विस्फोट’ पाठक को चमत्कृत कर देता है। चिंतन की ऊँचाई और भावों की गहराई, इतर काव्य-विधाओं की तरह क्षणिका को सफल बनाती है। उसके प्रभाव में श्रीवृद्धि करती है। संक्षिप्तता में प्रभविष्णुता ‘क्षणिका’ का प्राण-तत्त्व है! क्षणिका में उक्त ‘संक्षिप्तता, सघनता एवं प्रभविष्णुता’ नाम्नी गुण सीधी-सपाट अभिव्यक्ति से परे यथोचित प्रतीकों और बिम्बों के संतुलित प्रयोग से उत्पन्न होता है। क्षणिका को किसी भाव, विचार, विषय, घटना, प्रसंगादि के वर्णन-विस्तार, दीर्घ विवेचन, विशद विश्लेषण आदि का भार-वाहक बनाने से उसका ‘क्षणिकापन’ आहत हो जाता है। तब वह ‘क्षणिका’ के बजाय ‘दीर्घिका’ (?) बन जाती है, यानी मुक्तछंद/छंदमुक्त की सामान्य तौर पर प्रचलित कविता। इस संदर्भ में सीधे-सपाट शब्दों में कहें तो पंक्तियों की बढ़ती हुई संख्या ‘क्षणिका’ को ‘दीर्घिका’ (?) की ओर ले जाती है।

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