समकालीन क्षणिका खण्ड/अंक-02 अप्रैल 2017
रविवार : 20.08.2017
कृष्ण सुकुमार
01.
टूट रहा है कुछ!
एक बोझ!
जैसे छत का
ज़रूरी दीवारों के लिए
दीवारों का बुनियाद के लिए
ढह रहा है कुछ घर बनते हुए
दबा रह जाऊँगा
थामे हुए तेरा हाथ!
02.
छूट रहा है कुछ मुझसे
जैसे पत्तियों से हरा रंग
पानी से आर्द्रता
मिट्टी से सौंधापन
जो बचेगा
रेखाचित्र : सिद्धेश्वर |
03.
अर्थ देता है प्यार
दो अव्यक्त रूहों को!
खींचते हुए
बाहर से भीतर की ओर
अतल गहराइयों में
पसरे घुप्प अँधेरों में
दिपदिपाने लगती हैं आत्मायें!
- ए.एच.ई.सी., भा. प्रौद्यो. संस्थान, रुड़की-247667, उ.खण्ड/मो. 09917888819
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