समकालीन क्षणिका ब्लॉग अंक-03 / 33 जुलाई 2018
‘समकालीन क्षणिका’ के दोनों मुद्रित अंकों के बाद चयनित क्षणिकाएँ। भविष्य में प्रकाशित होने वाले अंक में क्षणिकाओं का चयन इन्हीं में से किया जायेगा।
सभी रचनाकार मित्रों से अनुरोध है कि क्षणिका सृजन के साथ अच्छी क्षणिकाओं और क्षणिका पर आलेखों का अध्ययन भी करें और स्वयं समझें कि आपकी क्षणिकाओं की प्रस्तुति हल्की तो नहीं जा रही है!
राजकुमार कुम्भज
{वरिष्ठ कवि कुम्भज जी की ये क्षणिकाएँ पूर्व में हम अविराम साहित्यिकी के जुलाई-सितम्बर 2014 अंक में भी प्रकाशित कर चुके हैं।}
01. सपने इसी तरह आते हैं
कुछ मैं भूल जाऊँ
कुछ तुम भी भूल जाओ
और कुछ भूल जाएँ हम दोनों
फिर डिमेंशिया-डिमेंशिया खेलें
सपने इसी तरह आते हैं
02. स्पर्श की समझ
संगीत की सुबह में
कविता की भी स्वाभाविक सुबह होती है
सिर्फ़ स्पर्श की समझ चाहिए
03. सोच देखो तो भी
सांकलें खोल दो
दरवाजों की, दिमाग़ों की
ताज़ा हवाएं और ताज़ा विचार
आते हैं कुछ इसी तरह
सोच देखो तो भी
सपना नहीं
- 331, जवाहर मार्ग, इन्दौर-452002, म.प्र./दूरभाष: 0731-2543380
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