समकालीन क्षणिका ब्लॉग अंक-03 / 24 मई 2018
‘समकालीन क्षणिका’ के दोनों मुद्रित अंकों के बाद चयनित क्षणिकाएँ। भविष्य में प्रकाशित होने वाले अंक में क्षणिकाओं का चयन इन्हीं में से किया जायेगा।
सभी रचनाकार मित्रों से अनुरोध है कि क्षणिका सृजन के साथ अच्छी क्षणिकाओं और क्षणिका पर आलेखों का अध्ययन भी करें और स्वयं समझें कि आपकी क्षणिकाओं की प्रस्तुति हल्की तो नहीं जा रही है!
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
01. मरते शब्द
कहते हैं लोग
नहीं मरते शब्द
दब गये कुछ पुराने शब्द
ढेंकली, ढेंकी, ढेबुआ....
रहँट, रहँटा.....
कलम-दवात....
शब्दकोश के पन्नों में
गुलाब की पंखुड़ियों की तरह
यह मरना नहीं है क्या?
02. शर्म
छुईमुई शरमा गई
छूते ही
अच्छा लगा
बची तो है कहीं
शर्म.....
03. मौसम
बदल डालो अपने को
समय के साथ
कोई बुराई नहीं
आखिर
मौसम भी तो यही करता है
04. साँप-सीढ़ी
उदास हैं पेड़
उजड़ गये घोंसले
नहीं आते पंछी
खेलने
रेखाचित्र : (स्व.) पारस दासोत |
साँप-सीढ़ी....
05. चीरहरण
धरती की हरियाली का
क्षरण
सीता का हरण
द्रोपदी का
चीरहरण.....
- ‘शिवाभा’, ए-233, गंगानगर, मवाना मार्ग, मेरठ-250001 (उ.प्र.)?./मो. 07906014752
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