समकालीन क्षणिका ब्लॉग अंक-03 /119 अप्रैल 2020
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01. समकालीन क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श }
02. अविराम क्षणिका विमर्श {क्षणिका विमर्श }
रविवार : 12.04.2020
‘समकालीन क्षणिका’ के दोनों मुद्रित अंकों के बाद चयनित क्षणिकाएँ। भविष्य में प्रकाशित होने वाले अंक में क्षणिकाओं का चयन इन्हीं में से किया जायेगा।
सभी रचनाकार मित्रों से अनुरोध है कि क्षणिका सृजन के साथ अच्छी क्षणिकाओं और क्षणिका पर आलेखों का अध्ययन भी करें और स्वयं समझें कि आपकी क्षणिकाओं की प्रस्तुति हल्की तो नहीं जा रही है!
जेन्नी शबनम
01. काश! कोई ज़ंजीर होती
वीरान राहों पर
तन्हा, ख़ामोश चल रही हूँ
थक गई हूँ, टूट गई हूँ
न जाने कैसी राह है
ख़त्म नहीं होती,
समय की कैसी बेबसी है
एक पल को थम नहीं पाती,
काश! कोई ज़ंजीर होती
रेखाचित्र : कमलेश चौरसिया |
02. बुरी नज़र
कुछ ख़ला-सी रह गई ज़िन्दगी में,
जाने किसकी बददुआ लग गई मुझको!
कहते थे सभी कि ख़ुद को बचा रखूँ
बुरी नज़र से,
हमने तो रातों की स्याही में
ख़ुद को छुपा रखा था!
- द्वारा राजेश कुमार श्रीवास्तव, द्वितीय तल-5/7, सर्वप्रिय विहार, नई दिल्ली-110016
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