समकालीन क्षणिका खण्ड-01 अप्रैल 2016
रविवार : 23.10.2016
{निर्धारित अनुक्रम के अनुसार राजवंत जी की क्षणिकाएँ विगत रविवार यानी 16.10.2016 को प्रकाशित होनी चाहिए थीं। भूलवश हुई इस त्रुटि के लिए हम क्षमा प्रार्थी हैं।}
राजवन्त राज
दरीचे में उलझकर अटक गये
रेशों को
जब मैंने
अपनी अंगुलियों से निकालना चाहा
दर्द से मेरा ही दुपट्टा रो पड़ा
बावजूद इसके
वहां कत्ल का कोई निशां न था।
02.
चुक गये शब्दों से
जब मैं अर्थ बीनने बैठी
कुछ यहाँ गिरे मिले
03.
सख्त हथेली पे
कुदरत की दो चीर हैं
इक जिन्दगी की है, इक मौत की है
मैंने जिन्दगी की चीर को
कलम से गहरा रंग दिया
मौत ने हँस के कहा-
तेरी स्याही फीकी है!
- 201, सूर्यालोक व्यू अपार्टमेन्ट, विकल्प खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ-226010, उ.प्र.
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