समकालीन क्षणिका खण्ड-01 अप्रैल 2016
बेचैन कण्डियाल
01. मुसाफिर
जिस
राह पर भी बढूँ
नजर आती है
लालबत्ती,
जिन्दगी के
चौराहे पर खड़ा
एक भटका हुआ
मुसाफिर हूँ मैं।
02. बेवजह
आँखों में ही
रोके रखा
अपने आँसुओं को मैंने,
कहीं-
भीग न जाये इनसे
दामन तेरा बेवजह।
सुबह,
दोपहर,
साँझ, रात्रि,
तुमने/कह दिया
तो-
होता होगा ऐसा ही।
04. ठहर गया
तुमने निकल जाने को
कहा तो मैं
हर्गिज निकल जाता,
शायद कल से/न आऊँ,
इसीलिये
आज ठहर गया।
05. इतना बेचैन
क्या मालूम था
कि इतना
बेचैन हो जायेगा,
वर्ना इतना न जलती शमाँ
कि पतंगा
खुदकुशी कर लेता।
- ‘आश्ना’, सी ब्लॉक, लेन नं.4, सरस्वती विहार, अजबपुर खुर्द, देहरादून (उ.खण्ड) / मोबा. 09411532432
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