Sunday, August 27, 2017

समकालीन क्षणिका : खण्ड-2 : मध्यान्तर मन्तव्य-01

समकालीन क्षणिका             खण्ड/अंक-02                   अप्रैल 2017



रविवार  :  27.08.2017

क्षणिका की लघु पत्रिका ‘समकालीन क्षणिका’ के अप्रैल 2017 में प्रकाशित खण्ड-2 में शामिल सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. योगेंद्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ साहब के क्षणिका विषयक विचार। 


डॉ. योगेंद्रनाथ शर्मा ‘अरुण’




क्षणिका : व्यापक अर्थ की अभिव्यक्ति

‘काल’ को सर्वोपरि और सर्वशक्तिमान माना गया है। इसी ‘काल’ की सूक्ष्मतम अवधारणा है ‘क्षण’ यानि जब आदमी की ‘पलक झपकने’ का अहसास हो, तब ‘क्षण’ की अनुभूति होती है। साहित्य-सर्जना ऐसी अनूठी साधना है, जो ‘काल’ पर भी विजय पा लेती है। फक्कड़, मस्त मौला कबीर तो धड़ल्ले से घोषणा ही कर देता है- ‘‘हम न मरैं, मरि है संसारा!/हमको मिला, जियावन हारा!!’’
      जब सबको मरना ही है, मिटना ही है; तब फक्कड़ कबीर ‘‘हम न मरैं, मरिहै संसारा’’ भला कैसे कह सकता है? इस पहेली का अर्थ भी कबीर ही दे रहा है हमको- अपनी धारणा ‘हमको मिला जियावनहारा’ के रूप में।
      साहित्य निःसन्देह ऐसा ‘जियावनहारा’ है, जो ‘बह्मानन्द सहोदर’ कहे जाने वाले ‘काव्यानन्द’ के माध्यम से कवि को ‘कालजयी’ बना देता है। शब्द-साधक मूलतः ‘क्षण’ को पकड़ता है, जिसे पाश्चात्य चिन्तक बेने देतो क्रोचे ‘‘सहजानुभूति’’ या ‘‘स्वयं प्रकाश्य ज्ञान’’ अर्थात ‘Intution’ (संबुद्धि) कहकर विशिष्ट ‘क्षण’ की ‘कौंध’ मानता है।
       .... किसी क्षण की विशेष अनुभूति को शब्दों में ढाल देना बहुत सार्थक लेकिन कठिन ‘विधा’ है; चूंकि इस विधा में रचनाकार को अपनी अनुभूति की ‘विशिष्टता’ को संप्रेषित करने के लिए ‘व्यंजना’ के साथ ही सूक्ष्म प्रतीक भी गढ़ने होते हैं। ‘क्षणिका’ वस्तुतः रससिद्ध कवि बिहारी लाल की ‘सतसई’ के दोहों की तरह ‘बहुत कम शब्दों में व्यापक अर्थ की अभिव्यक्ति’ कराने वाली ऐसी विधा है, जिसमें ‘प्राणतत्व’ के रूप में चमत्कृत कर देने की क्षमता भी विद्यमान रहती है।
  • 74/3,न्यू नेहरु नगर, रुड़की-247667, जिला हरिद्वार, उ. खण्ड/मो. 09412070351

No comments:

Post a Comment