Sunday, May 21, 2017

खण्ड दो : क्षणिका विमर्श

 समकालीन क्षणिका             खण्ड-02                  अप्रैल 2017


रविवार  :  21.05.2017

मित्रो,
अप्रैल 2016 में प्रकाशित ‘समकालीन क्षणिका’ के प्रथम खण्ड की सभी रचनाएँ ब्लॉग पर आ चुकी हैं। दूसरी ओर क्षणिका केन्द्रिम इस लघु पत्रिका का दूसरा अंक भी प्रकाशित होकर सभी संबन्धितों के हाथों में पहुँच चुका है। यानी अब हम इस स्थिति में हैं कि दूसरे खण्ड की सामग्री को इस ब्लॉग पर प्रस्तुत कर सकें। पहली किस्त में ‘क्षणिका की सामान्य पहचान और उसकी रचना-प्रक्रिया’ आलेख इस उद्देश्य से दिया जा रहा है कि नए रचनाकार, जो क्षणिका सृजन के साथ इस ब्लॉग से जुड़ना चाहते हैं, क्षणिका के संदर्भ में हमारा दृष्टिकोंण समझ सकें और तदनुसार ही प्रकाशनार्थ क्षणिकाएँ व आलेख हमें भेजें। कृपया क्षणिकाएँ व आलेख केवल ईमेल (kshanikaumesh@gmail.com) द्वारा ही भेजें।

{हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा नए रचनाकारों के लिए कार्यशालाओं के आयोजन में उपयोग हेतु विभिन्न विधाओं के सृजनात्मक पहलुओं पर प्रकाश डालने वाले आलेखों के संकलन प्रकाशित किए गए हैं। उन्हीं में से एक ‘काव्य पवन’ में यह आलेख भी शामिल है। ह. सा. अकादमी द्वारा क्षणिका को प्रोत्साहित किया जाना निसंदेह प्रशंसनीय है। हरियाणा से बाहर भी क्षणिका सृजन को समझने के इच्छुक नए रचनाकार इससे लाभान्वित हो सकें, इस उद्देश्य से इसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।}


डॉ. उमेश महादोषी





क्षणिका की सामान्य पहचान और उसकी रचना-प्रक्रिया
      एक विधा के तौर पर ‘क्षणिका’ की सामान्य पहचान और सृजनात्मक पहलुओं पर बात करने से पूर्व मैं दो बातें कहना जरूरी समझता हूँ। पहली यह कि साहित्य की किसी भी विधा में अच्छा सृजन सीखने के लिए उसके सृजन और तकनीक पर उपलब्ध तमाम विमर्श एवं व्याख्यात्मक साहित्य उस विधा की सामान्य पहचान एवं रचना-प्रक्रिया से सम्बन्धित जानकारी दे सकते हैं, उस विधा की सीमाओं को लेकर महत्वपूर्ण तथ्यों को समझा सकते हैं; लेकिन किसी विद्यार्थी को अच्छा रचनाकार बनाने की गारन्टी नहीं ले सकते। अच्छा रचनाकार बनने के लिए उपलब्ध विमर्श एवं व्याख्यात्मक साहित्य के संकेताक्षरों के प्रकाश में उस विधा की श्रेष्ठ रचनाओं का अध्ययन एवं उनमें निहित रचनात्मक प्रभावों को समझने एवं ग्रहण करने की सामर्थ्य, जो संभावित/जिज्ञासु रचनाकार की प्रतिभा से जुड़ी चीज होती है, का एवं स्वविवेक से जनित मौलिक चिंतन का उपयोग ही वास्तविक प्रशिक्षक होता है। दूसरी बात- कविता, अपितु समग्रतः साहित्य की किसी भी विधा को शब्दों में पूर्णतः परिभाषित करना किसी के लिए संभव नहीं है। विधा विशेष के जानकार अपनी-अपनी तरह से उस विधा की सामान्य पहचान सम्बन्धी तथ्यों पर ही प्रकाश डाल सकते हैं। यह जानकारी उस विधा की चौहद्दी को स्पष्ट करने का काम करती है, जिसके अन्दर रचनाकार अपनी रचनात्मक प्रतिभा के उपयोग से प्रभावी सृजन करता है। इन दोनों ही बातों के सन्दर्भ में मैं क्षणिका सीखने के जिज्ञासुओं से कहना चाहूँगा कि क्षणिका पर अब तक जो भी विमर्श एवं व्याख्यात्मक साहित्य सामने आ सका है, उसका अध्ययन करते हुए संकेताक्षरों को समझें और उनके प्रकाश में श्रेष्ठ क्षणिकाओं को तलाश करके उन्हें पढ़ें। पर्याप्त अध्ययन-मनन से प्राप्त प्रेरणाओं के आधार पर अपनी प्रतिभा एवं विवेक का उपयोग करते हुए बिना किसी होड़ में पड़े हुए क्षणिका सृजन करें। मात्रात्मक लक्ष्य किसी भी स्थिति में निर्धारित न करें, क्योंकि अधिक लिखने की होड़ में प्रायः अनावश्यक एवं स्तरहीन लेखन होता है।
क्षणिका का आशय एवं पृष्ठभूमि
      सामान्यतः दो-तीन से लेकर आठ-दस पंक्तियों तक की समकालीन कविता के फार्मेट में रचित लघु आकारीय रचनाओं को क्षणिका मान लिया जाता है। इस सामान्य धारणा के कारण गम्भीर रचनाओं के साथ व्यंग्यपरक, हास्यपरक, दो अर्थ वाली मानसिकता से युक्त अनेक असाहित्यिक रचनाएँ, चुटकुले, आम वक्तव्य आदि ‘कुछ भी’ को क्षणिका के नाम पर खपाने की परम्परा-सी बन गई है। दूसरी ओर, ‘समय की कमी’ जैसे एक अनावश्यक आधार को क्षणिका के साथ जोड़ दिया गया है, जिसने सीधे-सीधे इस भ्रामक धारणा को स्थापित करने में मदद की है कि समय को बचाने वाली लघु आकारीय रचनाओं को पाठक पसन्द करता है, इसलिए अतुकान्त कविता के सदृश जो कुछ थोड़े शब्दों में लिखा जा सकता है और रचनाकार के अनुसार पाठक का ध्यान आकर्षित कर सकता है, वह क्षणिका है। यह पूर्णतः भ्रामक धारणा है। यह क्षणिका का न तो साम्प्रतिक स्वरूप है और न ही उसकी वास्तविक पहचान। क्षणिका की वास्तविक पहचान को समझने के लिए हमें याद करना होगा कि ‘कादम्बिनी’ राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण पत्रिका रही है। इसके यशस्वी संपादक श्री राजेन्द्र अवस्थी जी के समय में इसमें दो स्तम्भ प्रकाशित हुआ करते थे- ‘हँसिकाएँ’ और दूसरा ‘क्षणिकाएँ’। क्षणिकाएँ के स्थान पर कई बार ‘सीपिकाएँ’ नाम का भी उपयोग देखा गया। इसी स्तम्भ में छोटे आकार की काव्य रचनाएँ प्रकाशित होती थीं, जो छन्दानुशासन से मुक्त होने के बावजूद प्रभाव और शिल्प के स्तर पर छन्दमुक्त कविता से अलग आस्वाद की होती थीं। कादम्बिनी ने इस स्तम्भ में हास्यपरक एवं हास्य के नाम पर दो अर्थों से युक्त संवादों वाली रचनाओं को प्रायः स्थान नहीं दिया। वैसी रचनाओं के लिए अलग स्तम्भ ‘हँसिकाएँ’ की व्यवस्था की थी, जिसमें बहुधा सुश्री सरोजनी प्रीतम जी को स्थान मिलता था। सुश्री सरोजनी प्रीतम जी को ‘क्षणिकाएँ’ स्तम्भ में शायद ही कभी स्थान मिला हो। स्पष्टतः तमाम व्यावसायिक आवश्यकताओं और व्यक्ति विशेष को महत्त्व देने की नीति के बावजूद कादम्बिनी एवं संपादक राजेन्द्र अवस्थी जी ने क्षणिका की पहचान को स्पष्ट एवं विशेष स्तर प्रदान किया। वर्तमान परिदृश्य में क्षणिका को लेकर हो रहे घालमेल के वातावरण में क्षणिका के वास्तविक स्वरूप को रेखांकित करने एवं समझने का इससे सुस्पष्ट उदाहरण दूसरा नहीं हो सकता।
      अब हम इसे आरम्भिक क्षणिका सृजन के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं। जहाँ तक क्षणिका सृजन की शुरुआत का प्रश्न है, चौथे दशक तक यह आरम्भ हो चुका था। डॉ. सुरेन्द्र वर्मा और रामकृष्ण विकलेश रवीन्द्रनाथ टैगोर से इसका आरम्भ मानते हैं, जबकि नाथूराम त्यागी के अनुसार अगस्त 1932 में प्रजामण्डल, नागपुर की बैठक में महादेवी वर्मा द्वारा आपातस्थिति के कारण समय के अभाव में अपनी बात कहने के लिए सुनाई गई कुछ लघु आकारीय रचनाओं से क्षणिका का आरम्भ होता है। शमशेर बहादुर सिंह की चौथे दशक में लिखी गई छोटी बिम्बपरक रचनाओं में भी क्षणिकाएँ मिल जाती हैं। 1939 में सृजित उनकी इस रचना को क्षणिका माना जा सकता है- ‘‘सूना-सूना पथ है, उदास झरना/एक धुँधली बादल रेखा पर/टिका हुआ आसमान/जहाँ वह काली युवती/हँसी थी’’। शमशेर बहादुर सिंह के समकालीन और उनके बाद (स्वतन्त्राता प्राप्ति के आसपास के कालखण्ड) के अनेक कवियों की रचनाओं में क्षणिकाएँ मौजूद हैं, लेकिन उन्होंने अपनी उन रचनाओं को क्षणिका की संज्ञा नहीं दी। {रचनात्मकता के प्रभाव को ग्रहण करने के सम्बन्ध में भले इससे बहुत अधिक अन्तर न पड़ता हो कि रचनाकार अपनी किस रचना को किस तरह की संज्ञा देता है, किन्तु साहित्य की विकास यात्रा से जुड़े विमर्श और समालोचना के कर्म-निर्वाह में यदि कुछ मौलिक भिन्नताएँ एक अलग सृजनात्मक कर्म को रेखांकित करती हैं तो समय के साथ नई विधा की स्वीकृति और मान्यता को रोका नहीं जा सकता। केवल ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं, पाठक को प्रभावित करने की दृष्टि से रचनाओं की समूहबद्ध पहचान के लिए भी।} लेकिन इनमें से अधिकांश रचनाओं का लघु आकार तीक्ष्ण अनुभूति की त्वरित अभिव्यक्ति एवं सम्प्रेषण का परिणाम दिखाई देता है। साथ ही इनमें निर्मित बिम्ब की प्रकृति भी मुक्त छन्द एवं छन्द मुक्त (प्रायः बड़े आकार की) कविताओं से भिन्न और अलग तरह का प्रभाव छोड़ने में समर्थ है। सूक्ष्मता से देखने पर ये रचनाएँ जीवन के उस बिन्दु की ऊर्जा का रचनात्मक प्रक्षेपण करती प्रतीत होती हैं, जहाँ सूक्ष्म विराट का प्रतिनिधित्व करता है। इस बिन्दु को जीवन की इकाई माना जा सकता है। ऐसी रचनाओं में क्रमशः कुछ और भी विशिष्टताएँ पहचानी जा सकती हैं। ऐसे में इन्हें अलग से रेखांकित करके  संबोधित करने में कुछ भी अनुचित नहीं है। इस तरह की भिन्नताएँ ही नई विधाओं की पहचान का आधार बनती हैं। उस दौर के कुछ प्रतिनिधि कवियों की क्षणिकाओं के उदाहरण देखें-
01. साँप!/तुम सभ्य तो हुये नहीं/नगर में बसना/भी तुम्हें नहीं आया।/एक बात पूछूँ- (उत्तर दोगे)/तब कैसे सीखा डसना/विष कहाँ पाया?’’ (सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’)
02. चारों ओर काँटों का जंगल है/और भीतर कहीं/एक डरी हुई लता है/जाओ, चले जाओ/यही उसके घर का पता है। (रामदरश मिश्र)
03. मैं सिगरेट तो नहीं पीता,/मगर हर आने वाले से/पूछ लेता हूँ कि माचिस है?/बहुत कुछ है जिसे मैं फूँक देना चाहता हूँ..... (गुलज़ार)
04. फलो!/जब तुम महंगे बेचे जाओ/तो तुरन्त सड़ जाया करो/छूते ही या देखते ही। (लीलाधर जगूड़ी)
05. जल रहा है/जवान होकर गुलाब/खोलकर होंठ/जैसे आग/गा रही हो फाग। (केदारनाथ अग्रवाल)
06. मैं एक भागता हुआ दिन हूँ/और रुकती हुई रात-/मैं नहीं जानता हूँ/मैं ढूँढ़ रहा हूँ अपनी रात/या ढूँढ़ रहा हूँ अपना प्रात! (श्रीकान्त वर्मा)
07. बच्चा गोद में लिये/चलती बस में/चढ़ती स्त्री/ /और मुझमें कुछ/दूर तक घिसटता जाता हुआ। (रघुवीर सहाय)
08. स्थिर हैं/झरने, नदियाँ, हिरन/गो संविधान के तहत/उन्हें पूरी है स्वतन्त्रता/बहने और चौकड़ी भरने की। (विश्वनाथ प्रसाद तिवारी)
09. मेमने फुदकते हैं/जाड़े की धूप को/जीवन के खेल से/आँक-आँक देते हैं। (त्रिलोचन)
10. घास की एक पत्ती के सम्मुख/मैं झुक गया/और मैंने पाया कि/मैं आकाश छू रहा हूँ। (सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)
11. मेरी सेज हाजिर है/पर, जूते और कमीज की तरह/तू अपना बदन भी उतार दे/उधर मूढ़े पर रख दे/कोई खास बात नहीं-/यह अपने-अपने/देश का रिवाज है। (अमृता प्रीतम)
      अब हम इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं कि क्षणिका क्या है? परिभाषित करने के लिए नहीं, सामान्य समझ के लिए कुछ शब्दों के माध्यम से एक चौहद्दी खींचते हुए। क्षणिका समकालीन काव्य की विधा है, जिसमें सूक्ष्म भावों एवं विचारों की तीक्ष्ण अनुभूति रचनाकार के हृदय में स्थित समस्तरीय ऊर्जा के प्रभाव में त्वरित गति से अभिव्यक्त एवं सम्प्रेषित होती है। इन दोनों मूल तत्वों- ‘तीक्ष्ण अनुभूति’ एवं ‘अभिव्यक्ति व सम्प्रेषण की त्वरित गति’ के सम्मिलन से क्षणिका में लघु आकार, अर्थ की व्यापकता एवं छन्द के अनुशासन से मुक्ति का उद्भव होता है, जिन्हें संयुक्त रूप में क्षणिका का स्वभाव कहा जा सकता है। क्षणिका को वास्तविक रूप में समझने के लिए हमें ‘तीक्ष्ण अनुभूति’ एवं ‘अभिव्यक्ति व सम्प्रेषण की त्वरित गति’ का वास्तविक आशय भी स्पष्टतः समझ लेना आवश्यक है। इससे हम ‘समय की कमी’ के भ्रमजाल से भी मुक्ति पा सकेंगे।
      कविता का सीधा सम्बन्ध जीवन और उसे जीने योग्य बनाने वाले मूल्यों के प्रति समझ विकसित और आत्मसात करने से होता है। जीवन की इकाई होता है क्षण। यानी एक ऐसा प्रतिनिधि बिन्दु, जिसमें जीवन का विराट अस्तित्व समाया हुआ होता है। जीवन में होने वाले तमाम परिवर्तन उसके प्रतिनिधि बिन्दुओं यानी क्षण-क्षण में होने वाले परिवर्तनों का समेकित (पदजमहतंजमक) अथवा/और प्रभावी (मििमबजपअम) परिणाम होते हैं। निःसन्देह समग्र जीवन और उसे जीने योग्य बनाने वाले मूल्यों के निरंतर प्रवाह के लिए हम प्रभावपूर्ण समेकित भाव-सृजन (सृजनात्मक विधाओं- काव्य, कथा, नाटक आदि में रचनाकर्म) कर सकते हैं, लेकिन जीवन के आधारीय क्षण की ऊर्जा को भाव-सृजन में बदलना कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है। भाव सृजन दो तरह से होता है- एक तो जीवन और जीवन मूल्यों से प्रत्यक्ष जुड़ी सकारात्मकताओं और प्रभावों को सृजन (रचना) के तत्वों में बदलकर और दूसरे, जीवन और जीवन मूल्यों को अवरोधित करने वाले कारकों को अनावृत (मगचवेम) करने, उनके समाधान और प्रभावों को सकारात्मक दिशा में मोड़ने की प्रक्रिया को भाव-सृजन में बदलकर अर्थात विसंगतियों, विद्रूपताओं आदि जैसी नकारात्मक चीजों व उनके प्रभावों को उद्देश्यपूर्ण अभिव्यक्ति में रूपान्तरित करके।
      सृजनकर्म में संलिप्त रचनाकार जब अपनी दृष्टि और चिंतन को समग्र जीवन के सापेक्ष ‘क्षण’ पर केन्द्रित करता है और वहाँ उपस्थित सृजन को प्रेरित करने वाले वातावरण से साक्षात्कार करता है तो उसे होने वाली अनुभूति तीक्ष्ण होती है। (इसका कारण सृजन को प्रेरित करने वाले क्षण की प्रकृति और उसके प्रभाव में व्याप्त तीखापन होता है।) इस तीक्ष्ण अनुभूति को यदि रचनाकार के हृदय में समस्तरीय ऊर्जा का सम्मिलन प्राप्त हो जाता है तो अनुभूति का रचनात्मक परिवर्तन त्वरित (सतत वृद्धि से युक्त) वेग से गतिवान अभिव्यक्ति में होता है। चूँकि त्वरित वेग ठहरने (काव्यानुकूल अन्यान्य चीजों में रमने) और विरलता बढ़ाने वाले शब्दों के उपयोग की अनुमति/अवसर नहीं देता, इसलिए रचनात्मक अभिव्यक्ति लघु आकारीय, व्यापक अर्थ से युक्त और किसी छन्द के अनुशासन के तानेबाने से मुक्त होती है। उसका परम उद्देश्य शीघ्रातिशीघ्र चरमोत्कर्ष को दीप्तिमान करना होता है। इस अभिव्यक्ति को रचनाकार यदि सहजता और सरलता से संपुष्ट बनाए रख सके तो उसका सम्प्रेषण भी पाठक के मनोमस्तिष्क तक त्वरित वेग से ही होता है।  रचनाकार के हृदय में अनुभूति की तीक्ष्णता के सापेक्ष समस्तरीय ऊर्जा के अभाव अथवा/एवं सायास इन चीजों के विपरीत जाने पर गति कुंद हो जाती है और रचनात्मक प्रभाव क्षीण। लघु आकार, अर्थ की व्यापकता एवं छन्द के अनुशासन से मुक्ति अनिवार्य तत्वों (‘तीक्ष्ण अनुभूति’ एवं ‘अभिव्यक्ति व सम्प्रेषण की त्वरित गति’) से जनित लक्षण होते हैं और उन्हें क्षणिका के रूप-स्वरूप से विलग नहीं किया जा सकता। इसलिए मैं इन्हें संयुक्ततः क्षणिका का स्वभाव कहता हूँ।
      अब ‘क्षण’ और उसके जीवन-प्रभावों को भी समझ लेना आवश्यक है। जब ‘क्षण’ को जीवन की इकाई कहा जाता है तो इसका सीधा आशय यह है कि मनुष्य प्रत्येक ‘क्षण’ में सम्पूर्ण जीवन के समस्तर को जीता है। जीवन के वृहत् कालखण्ड में जिन चीजों का वह सामना करता है, वे एक ओर ‘क्षण-क्षण’ जिए गए जीवन की समेकित/प्रभावी चीजें होती हैं, दूसरी ओर उन चीजों की समधर्मा/समस्वभाव वाली छोटी-छोटी चीजें वह प्रत्येक क्षण जीता है। इन छोटी-छोटी चीजों में कई ऐसी होती हैं, जिनका प्रभाव बड़ी चीजों के प्रभाव से भी अधिक बड़ा होता है। अपनों के नकारात्मक व्यवहार की अनेक बड़ी-बड़ी बातों को सहजतापूर्वक सह जाने वाला व्यक्ति किसी क्षण विशेष पर किसी छोटी-सी बात से तिलमिला जाता है। आर्थिक-सामाजिक-भावनात्मक दृष्टि से कई लोगों के लिए कई अवसरों पर छोटी-छोटी चीजें बेहद महत्वपूर्ण होती हैं। जब एक सृजनधर्मी व्यक्ति स्वयं को ऐसी चीजों से प्रभावित पाता है तो निसन्देह उसका मन-मस्तिष्क ‘क्षण’ पर केन्द्रित होता है। यदि किसी को किसी क्षण विशेष के बाद जीवन के भरपूर सम्मान और सम्पन्नता के साथ जीने का अधिकार दिया जाये, बदले में उस आरम्भिक ‘क्षण’ विशेष पर उससे जीने का अधिकार वापस माँग लिया जाये तो क्या भरपूर सम्मान और सम्पन्नता के साथ जीने के अधिकार का कोई अर्थ होगा? स्पष्टतः बहुत सारी चीजें क्षण विशेष तक सीमित यानी क्षणिक होकर भी व्यापक महत्व की होती हैं। अनेक क्षणिक अहसास जीवन को पूरी तरह बदल देने का कारण बन जाते हैं। ‘क्षण’ का यही महत्व एक विशेष कविता का आधार तैयार करता है, जिसका प्रतिफल ‘क्षणिका’ है। इसका अर्थ ‘लघुकाय’ को ध्वनित करने वाला ‘क्षणकाय’ कदापि नहीं हैं। मेरी दृष्टि में शब्दार्थ की दृष्टि से देखने वाले ‘क्षणिक’ के प्रभाव की अभिव्याप्ति को व्याख्यायित करने वाली रचना के रूप में ‘क्षणिका’ को देखें तो कहीं अधिक उचित होगा।
क्षणिका की रचना-प्रक्रिया और अन्य काव्य विधाओं से भिन्नता
      साहित्य दो प्रकार का होता है- एक व्याख्यात्मक एवं विश्लेषणपरक और दूसरा सृजनात्मक। पहले प्रकार में हम काव्य एवं नाट्य व कथा साहित्य से इतर गद्य को रख सकते हैं और दूसरे में काव्य एवं नाट्य व कथा साहित्य को रख सकते हैं। प्रथम प्रकार के साहित्य के लेखन में लेखक की विवेक दृष्टि की भूमिका ही प्रमुखतः होती है। जबकि दूसरे प्रकार के साहित्य सृजन में रचनाकार की विवेक दृष्टि के साथ संवेदन-दृष्टि भी समान महत्व की भूमिका निभाती है। भाव एवं विचार से परिपूर्ण विषय को जब घटना/घटनाओं पर प्रत्यारोपित करके सृजन किया जाता है तो परिणामी सृजन धारा हमें कथा व नाट्य साहित्य (और समधर्मा काव्य- प्रमुखतः प्रबन्ध काव्य) की ओर ले जाती है। जबकि विषय को घटना/घटनाओं पर प्रत्यारोपित किये बिना सृजन का प्रतिफल भावपूर्ण एवं वैचारिक मुक्त काव्य (छान्दस, मुक्त छन्द एवं छन्द मुक्त- तीनों तरह का) के रूप में दिखाई देता है।
      क्षणिका के सृजन में विवेक दृष्टि क्षण से जुड़े विषय के वास्तविक और दूरगामी प्रभाव का त्वरित विश्लेषण करती है। सम्वेदन-दृष्टि के सम्मिलन सेे उक्त विश्लेषण का परिणाम घनीभूत व केन्द्रीकृत भाव या विचार की तीक्ष्ण अनुभूति कराता है। यह अनुभूति अपने कथ्य की त्वरित गति के कारण वातावरण के निर्माण या उसके वर्णन के लिए अवसर दिये बिना ही मुक्त किन्तु सघन रूप में अभिव्यक्त होती है। प्रयुक्त शब्दों में अर्थ की व्यापकता होती है। यदि रचनाकार के पास बिम्ब निर्माण एवं प्रतीकों के प्रयोग का कौशल है, तो वह क्षणिका के प्रभाव को कई गुना बढ़ा सकता है। लेकिन क्षणिका में एकल बिम्ब का सीधा, स्वतन्त्र एवं पूर्ण प्रयोग ही उसके मौलिक तत्वों एवं स्वभाव के निर्वाह में सफल होता है। प्रतीक सटीक यानी अन्य चीजों के सापेक्ष उपयुक्त व प्रभावी होने चाहिए। बिम्ब आधारित एवं सटीक प्रतीकों वाली क्षणिकाएँ सपाटबयानी के सापेक्ष अधिक प्रभावशाली होती हैं। यहाँ बिम्ब एवं सपाटबयानी से युक्त एक-एक उदाहरण प्रस्तुत है। दोनों क्षणिकाएँ सशक्त हैं, फिर भी बिम्ब का प्रभाव अलग महसूस होता है।
01. ‘‘नुस्खा, दवा, दूध, आटा/सब सही हैं तो/गलत कौन/क्या वो/जो हमेशा के लिए/हो गया मौन!’’ (केशव शरण)
02. ‘‘कोई ततैया/किसी पत्ती के पास से/निकल जाती है/स्पर्श रहित रह जाती है पत्ती/पर काँप-काँप जाती है।’’ (डॉ. सुरेन्द्र वर्मा)
      सपाटबयानी में क्षणिका का प्रभाव लाना काफी मुश्किल काम है। कोई अतिगम्भीर और महत्वपूर्ण विचार ही सरलीकृत होकर क्षणिका बन सकता है। अनेक रचनाकार सपाटबयानी के नाम पर किसी भी विचार-वाक्य को कुछ पंक्तियों में तोड़कर उसे क्षणिका कह रहे हैं। ऐसी रचनाओं में न तो रचनात्मकता होती है न ही मौलिकता। इनमें क्षणिका के मूल तत्वों का निर्वाह तो मिलता ही नहीं है। चीजों पर ध्यान केन्द्रित करके, रचनात्मकता और उसके प्रभाव को जब तक आप अनुभूत नहीं करेंगे, तब तक स्वाभाविक क्षणिका सृजन सम्भव नहीं है। यहाँ तक कि छान्दसिक रूपान्तरण भी क्षणिका का प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए हम यहाँ एक विषय लेते हैं। हमारे समाज में सबसे निचले पायदान के मेहनतकशों को उनके श्रम का फल नहीं मिल पाता है। नेता व अधिकारी उसी श्रम के परिणाम पर ऐश करते हैं। इस बात को बहुतायत में लिखे जा रहे पैटर्न पर कोई आम रचनाकार एक वाक्य बनाकर उसे पंक्तियों में तोड़कर इस प्रकार लिख देगा- ‘‘श्रम करता है/गरीब मजदूर बेचारा/लेकिन फल ले उड़ता है/नेता/जो करता है/बड़े-बड़े घोटाला।’’ इसमें न कविता है, न क्षणिका। अब इसी बात को लय और गेयता को क्षणिका के मूल तत्वों से ऊपर रखने वाला रचनाकार इस प्रकार कह सकता है- ‘‘मैंने श्रम से/फल उपजाया/पर/नेता ने/चूसा-खाया।’’ किन्तु यह रूप एक चौपाई है। इसका अपना एक अलग आस्वाद हो सकता है। इसका लघु आकार और आस्वाद चौपाई की संरचनात्मक विशेषताओं (मात्राओं, उनके अनुक्रम और उससे जनित लय आदि) के कारण है। इसमें क्षणिका के मूल तत्वों एवं स्वभाव की उपस्थिति नहीं है। अब इसी विषय पर एक पूर्ण क्षणिका देखिए- ‘‘गंगू की आँख में/सरसों उगी/और मस्तक में/कोल्हू चला/पर/लटकाकर उल्टा/उसके भाग्य को छत से/तेल सारा/राजा भोज पी गया!’’ क्षणिका एक पूर्ण कविता होती है। सामान्यतः कई क्षणिकाओं को मिलाकर एक बड़ी कविता बनाना स्वाभाविक सृजन नहीं हो सकता। कई चौपाइयों को मिलाकर एक लम्बी रचना लिखी जा सकती है। चौपाई के आगे या पीछे इसका शान्त संकेत भी हो सकता है।
      क्षणिका की अन्य विधाओं से भिन्नता के बारे में कहा जा सकता है कि प्रमुखतः भावपूर्ण होने एवं विषय के घटना पर प्रत्यारोपित न होने के कारण यह कविता की विधा है। छन्दानुशासन से मुक्त होने के कारण यह छान्दस कविता से अलग है। मुख्यतः भाव/विचार की अनुभूति की तीक्ष्णता एवं सरलीकृत व केन्द्रीकृत सघनता व उसकी त्वरित सम्प्रेषण क्षमता के कारण यह नई कविता (व अन्य समदृश्य विधाओं) से भिन्न है। यहाँ क्षणिका की नई कविता से भिन्नता को विशेष रूप से समझना आवश्यक है, क्योंकि नई कविता के साथ भौतिक सादृश्य के कारण क्षणिका की मौलिक पहचान को उपेक्षित करके अनेक कवियों ने उसे नई कविता के साथ ही रखा है। इस भिन्नता को समझने के लिए निराला जी की सुप्रसिद्ध कविता ‘वह तोड़ती पत्थर’ और उसी पृष्ठभूमि से प्रेरित इस क्षणिका (कृपया इसे दोनों रचनाओं की तुलना न समझें) का विश्लेषण कर सकते हैं-  ‘‘जितना/उन्होंने लिखा-/वह तोड़ती पत्थर/उतना और/तुम बन गए/पत्थर/वह/आज भी/है तोड़ती पत्थर!’’
      निराला जी की कविता में श्रमरत महिला की स्थिति एवं मनोभावों (और उसके बहाने समग्रतः महिलाओं की स्थिति पर भी) प्रकाश डाला गया है। कविता में उसके इर्द-गिर्द के वातावरण को कई कठोर परिस्थितियों के सूचक शब्दों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है, जो भाव-बोद्ध को क्रमशः स्पष्ट करता है और अनुभूति को धीमे-धीमे चरम तक ले जाता है। इससे भिन्न उक्त उद्धृत क्षणिका में वातावरण की सम्पूर्ण कठोरता का विश्लेषण संवेदना के सम्मिलन से केवल इन शब्दों में व्यक्त कर दिया गया है- ‘‘उतना और/तुम बन गए/पत्थर’’। स्थितियों-परिस्थितियों को बदलने के लिए किए जा रहे प्रयासों (जिनमें तमाम महिला विमर्श और सशक्तीकरण के अभियान शामिल हैं) को उक्त शब्दों से पहले के इन थोड़े से शब्दों में व्यक्त किया गया है- ‘‘जितना/उन्होंने लिखा-/वह तोड़ती पत्थर’’। इन शब्दों को पहले रखने से बाद के शब्दों में अनुभूति तीक्ष्ण हो गई है और अभिव्यक्ति की गति बढ़ गई है। क्षणिका में मौजूदा यथार्थ को जब रचनाकार ‘‘वह/आज भी/है तोड़ती पत्थर!’’ शब्दों में अभिव्यक्त करता है तो तीक्ष्ण अनुभूति त्वरित गति से चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर पाठक के मनोमस्तिष्क में सम्प्रेषित हो जाती है।
      यह समझना भी आवश्यक है कि लघु आकार किसी कविता के क्षणिका होने की गारन्टी नहीं है। अच्छी क्षणिका के लिए लघु आकार अनुभूति की तीक्ष्णता एवं अभिव्यक्ति की त्वरित गति से जनित होना आवश्यक है। एक उदाहरण से बात और स्पष्ट हो जाएगी। एक कविता है, जिस पर क्षणिका का कुछ प्रभाव दिखाई देता है।  ‘बर्रैया’ शीर्षक इस कविता को देखें-
     ‘‘बर्रैया कहती है/दुनिया को होना चाहिए/डंक और विष से रहित/बिच्छू भी यही कहता है/बर्रैया डंक मार देती है उसे/चुप न रहने की सजा देती है/केंचुल उतारता साँप/बर्रैया की ओर देखता जाता है.../बर्रैया नाग में बदल रही है’’।
      अब इसी रचना को एक दूसरे रूप में देखें-
     ‘‘केंचुल उतारते साँप ने/सुना-/बर्रैया कहती है/दुनिया को होना चाहिए/डंक और विष से रहित/और.../साँप देखता है-/बर्रैया नाग में बदल रही है’’।
      मेरी दृष्टि में रचना के दोनों ही रूप प्रभावित करते हैं, लेकिन पहले रूप में क्षणिका नहीं, एक लघु आकारीय कविता है। विशेषतः रचना का मध्य भाग, क्रमशः बिच्छू और साँप के क्रमिक प्रवेश से रचना के प्रभाव की प्रकृति बदल देता है। ‘‘बिच्छू भी यही कहता है/बर्रैया डंक मार देती है उसे/चुप न रहने की सजा देती है’’ शब्दों से निर्मित वातावरण में दृष्टि रमकर अभिव्यक्ति की गति को धीमा करती है। ‘‘बर्रैया नाग में बदल रही है’’ की तीक्ष्णता भी पहले रूप में दूसरे के सापेक्ष कम है। दूसरे रूप में शब्दों का अनुक्रम, बिच्छू के प्रसंग की अनुपस्थिति एवं ‘‘और...’’ शब्द (तीनों बिन्दुओं के साथ) का उपयोग अनुभूति की प्रकृति एवं अभिव्यक्ति व सप्रेषण की गति में प्रभावी परिवर्तन करके रचना को क्षणिका बना देते हैं।
क्षणिका और नई कविता के अर्न्तसम्बन्ध
      इस सन्दर्भ में कुछ कहने से पूर्व मैं यहाँ कुछ उदाहरण सामने रखना चाहूँगा-
(1) ‘‘डूबते आदमी का/जल से ऊपर उठा यह हाथ/फिर-फिर शून्य को पकड़ता/मेरे साथ- /तुमने रचा।/ /हथकड़ियाँ पहनाने के लिए/अब भी है यह बचा।/ / इसे शुमार कर लो उस गिनती में/जिसे तुम भूलते जा रहे हो।’’
(2) ‘‘मुझे आदमी का सड़क पार करना/हमेशा अच्छा लगता है/क्योंकि इस तरह/एक उम्मीद-सी होती है/कि दुनिया जो इस तरफ है/शायद उससे कुछ बेहतर हो/सड़क के उस तरफ।’’
(3) ‘‘मैं अकेला नहीं था!/मेरे साथ एक और था/जो साथ-साथ/चलता था और कभी-कभी/मुझे अपनी जेब में/एक गिरे हुए पर्स-सा/उठाकर रख लेता था।/मैं जानता हूँ/हरेक की नियति यही है/कि कोई और उसे/खर्च करे।’’
(4) ‘‘बर्फ,/जंगल/या सिर्फ/चट्टान/नहीं होते पहाड़,/पहाड़ की गहरी संवेदनायें/होती हैं/अपनी घाटियों/की तरह।’’
(5) ‘‘एक अच्छी कहानी पढ़ने का-/सुख/कई दिनों तक बना रहता है/कई दिनों तक उसके पात्र/नमकपारे का स्वाद/सौंधी महक/अपनापन, जायका, एहसास/बना रहता है’’
      इन उदाहरणों को पढ़िये, ऊपर क्षणिका की जो व्याख्या की गई है, उसके सन्दर्भ में क्या इन्हें क्षणिका कहने में कोई संकोच हो सकता है? मुझे लगता है इन्हें सहज ही क्षणिका माना जा सकता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि ये अलग-अलग नई कविताओं के हिस्से हैं। उदाहरण (1) सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ‘यह हाथ’, (2) केदारनाथ सिंह की कविता ‘उस आदमी को देखो’, (3) श्रीकान्त वर्मा की लम्बी कविता ‘समाधि-लेख’, (4) बेचैन कण्डियाल की कविता ‘जीवन की तरह’ एवं उदाहरण (5) लालित्य ललित की कविता ‘सार्थक कहानी’ का अंश है। तो क्या क्षणिका नई कविता का अंश हो सकती है?
      भौतिक सादृश्य के बावजूद मूल तत्वों की प्रकृति एवं स्वभाव के आधार पर क्षणिका नई कविता से भिन्न काव्य विधा है, जैसाकि हमने ऊपर के अध्ययन में देखा है। लेकिन इस सन्दर्भ में नई कविता के अध्ययन के दौरान रचनाओं में कई जगह ऐसे काव्यांश मिल जाते हैं, जिनमें क्षणिका के मूल तत्वों व स्वभाव की उपस्थिति होती है। साथ ही यदि उन्हें मूल रचना से अलग उठाकर रख दिया जाये तो वे अपने स्वतन्त्र अस्तित्व का बोध भी कराते हैं। उपरोक्त उदाहरण ऐसे ही काव्यांश हैं। चूँकि नई कविता के रचनाकार का चिंतन जिस भावभूमि पर केन्द्रित होता है, उसमें ‘क्षण’ से जुड़ी क्रिया-प्रतिक्रियायें भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में शामिल होती हैं, इसलिए ऐसे प्रयोग रचना-प्रक्रिया के हिस्से के रूप में सहज भाव से आ जाते हैं। इन काव्यांशों के प्रयोग को नई कविता में क्षणिका के मूल तत्वों और स्वभाव के उपयोग द्वारा विशिष्ट ऊर्जा के संचार के रूप में भी देखा जा सकता है। ऐसे प्रयोगों से कविता में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर जोर देने या कुछ स्थापनाओं को रेखांकित करने का काम आसान हो जाता है। अर्थात ‘क्षण’ की रचनात्मक ऊर्जा नई कविता की विशिष्ट शक्ति बनकर नई कविता के शिल्प को गरिमा प्रदान करती है। यह तथ्य क्षणिका की विशिष्ट पहचान को महत्व देने की आवश्यकता की ओर भी संकेत करता है।
      इस प्रकार क्षणिका का नई कविता के साथ अन्तर्सम्बन्ध नई कविता के उन्नयन का कारण तो बनता ही है, उसके अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की पहचान के आधार को भी पुख्ता करता है।
प्रचलित क्षणिका लेखन में वास्तविक क्षणिका की पहचान
      प्रचलित क्षणिका लेखन में बहुत सारी रचनाएँ क्षणिका नहीं हैं। क्षणिका लिखना सीखने वालों के लिए ऐसी रचनाएँ बहुत बड़ी समस्या पैदा करती हैं। इसलिए उदाहरणों के माध्यम से वास्तविक क्षणिकाओं को उन रचनाओं, जो क्षणिका नहीं हैं, से अलग पहचानना विद्यार्थियों की काफी सहायता कर सकता है। विद्यार्थी इन उदाहरणों को देखें और सही क्षणिका को पहचाने-
01. ‘‘नारी/तभी पूर्ण होती है/जब/वह माँ बनती है।’’
02. ‘‘उसने मोहल्ले में सड़ते/कूड़े के ढेर पर/फावड़े के साथ/होकर खड़े/फोटू खिचवाया/स्वच्छता अभियान में/पहला स्थान पाया।’’
03. ‘‘मंत्रीजी ने/मँहगाई पर सफाई में/लम्बा भाषण दिया/विपक्षी नेता ने/विरोध में उससे भी लम्बा/झाड़ दिया/दोनों में तेज होड़ होती रही/मँहगाई/उससे भी तेज दौड़ती रही।’’
04. ‘नेताजी के आवास पर/ड्यूटी देता एक गार्ड दूसरे से बोला-/पता नहीं नेताजी कैसे इतनी सुबह उठ जाते हैं/दूसरा बोला-/अबे! वे रोज शाम को/मुर्गा खाते हैं!’
05. ‘जिसके चारों ओर/लटकती हैं मजबूर सवारियाँ/धीमी गति से चलती है/खाती है जोरदार गालियाँ/देहाती सड़क की दशा से/उसकी सेहत मेल खाती है/वह लोकल प्रायवेट बस कहलाती है।’
06. ‘पौधा पेड़ बनता है/बौर आता है/फल लगते हैं/समय ऐसे ही बदलता है।’
07. ‘गया हुआ व्यक्ति/लौटकर नहीं आता/बस उसकी यादें आती हैं/मन बातें करता है/आँखें आँसू बरसाती हैं।’
08. ‘जब तक.../तुम्हारे हाथों में/जाल है, पिंजरे हैं, माचिस है/मैं समुद्र में रहूँ या घरों में.../ /रहूँगी तो तुम्हारे/खौफ तले...!!’
09. ‘जब भी याद आती है तेरी/धीरे से मैं/दीवार की खाल/खुरच देता हूँ/जहाँ तेरा नाम/कभी लिखा था मैंने/खड़िया से’।
अब आप क्रमशः विचार कीजिए। उक्त रचनाओं में क्रमांक 1 से 5 तक में क्या कहीं क्षणिका नजर आती है? क्रमांक 6 व 7 की रचनाएँ कैसी लगी? क्रमांक 8 व 9 के अन्तर्गत रचनाओं को अलग से पढ़िए। मेरे विचार में पहली रचना एक आम कथन है। दूसरा एक कार्यक्रम का मखौल बनाने की प्रवृत्ति पर तंज कसने वाला आम वाक्या है, इसे भी कविता में स्वीकार नहीं किया जा सकता। तीसरी-चौथी रचनाओं में चुटकुलेबाजी है। पाँचवीं भी चुटकुले की भाषा में परिभाषानुमा कथन है। इनमें से कोई भी कविता की श्रेणी में रखने योग्य नहीं है, इसलिए ये क्षणिका भी नहीं हो सकतीं। क्रमांक 6 व 7 की रचनाओं में कुछ भाव-विचार की उपस्थिति है। इन्हें साधारण स्तर की क्षणिका माना जा सकता है। साधारण स्तर की इसलिए कि एक तो इनमें अनभूति की तीव्रता बहुत अधिक प्रतीत नहीं होती। दूसरे इनके विषय और कथ्य भी बेहद सामान्य हैं। क्रमांक 8 व 9 की रचनाओं में क्षणिका के मूल तत्वों एवं स्वभाव की उपस्थिति है। इसलिए इन्हें अच्छी क्षणिकाओं की श्रेणी में रखा जा सकता है। ये दोनों क्रमशः हरकीरत ‘हीर’ एवं अनिल जनविजय की रचनाएँ हैं।  
क्षणिका सृजन के लिए उपयुक्त विषय
      क्षणिका जीवन से जुड़े प्रत्येक क्षण में निहित भावसृजन की ऊर्जा का रचनात्मक प्रक्षेपण (क्षण विशेष से जुड़ी घटना/प्रसंग में निहित सृजनात्मक प्रभाव को उद्देश्यपूर्ण प्रभाव से युक्त रचनात्मक कथ्य में बदलने की प्रक्रिया) करने में सक्षम है। अतः लघुकाय होने के बावजूद यह बहुआयामी विधा है। किसी भी विषय, जिसमें भाव-विचार निहित हो, पर इस विधा में सृजन सम्भव है। प्रकृति, प्रेम, सामाजिक सरोकार, सामाजिक व व्यवस्थागत विसंगतियाँ, संवेदना, पीड़ा जैसी जीवनानुभूतियाँ- लगभग सभी विषयों पर क्षणिका सृजन संभव है और हुआ भी है। इसे हास्य-व्यंग्य तक सीमित करने के कुछ प्रयास मान्य नहीं हो सकते। हास्य के नाम पर लिखी गई अनेक कथित रचनाओं में न हास्य दिखता है, न व्यंग्य और न ही काव्य। ऐसे में उन्हें क्षणिका कैसे माना जा सकता है? व्यंग्यात्मक पुट वाली रचनाओं में क्षणिका के मूल तत्वों की उपस्थिति हो तो ही रचना को क्षणिका माना जा सकता है। दोनों ही स्थितियों को उदाहरण के माध्यम से देखें- ‘‘नेताजी/नशाबन्दी पर/धुआँधार भाषण झाड़ते हैं/और शाम को/गला तर करने के लिए/गटागट उतारते हैं’’ (सुमनकान्त सिंघल, ‘अंकुर आवाज’ जुलाई-अगस्त 1987)। मेरी समझ से इसे केवल एक सामान्य वक्तव्य माना जा सकता है। इसके सापेक्ष इस रचना को देखें- ‘‘कल/हमारे नगर की रामलीला में/कमाल हो गया/रावण केवल एक बोतल दिखाकर/हनुमान को/अपनी सेना में ले गया’’ (प्रशान्त उपाध्याय, क्षणिका संकलन ‘सीपियाँ और सीपियाँ’)। इस रचना में कुछ लोगों को हास्य भी दृष्टिगत होगा, लेकिन मूलतः इसमें व्यंग्य है आधुनिक समय की सामाजिक रामलीलाओं के नायकों के भक्तों के गिरते चरित्र पर। क्षणिका के मौलिक तत्व- ‘तीक्ष्ण अनुभूति’ एवं ‘अभिव्यक्ति व सम्प्रेषण की त्वरित गति’ और स्वभावगत तत्वों- ‘लघुकाय’, ‘अर्थ की व्यापकता’ व ‘छन्दानुशासन से मुक्त होना’ की उपस्थिति भी है। इसलिए यह क्षणिका है। लेकिन क्षणिका का साम्प्रतिक स्वरूप और उसकी शक्ति हास्य-व्यंग्य से इतर रचनाओं में ही अधिक स्पष्ट और प्रभावी रूप में दिखाई देते हैं। इस दृष्टि से विभिन्न विषयों पर कुछ समकालीन कवियों की इन क्षणिकाओं को देखा जा सकता है।
प्रकृति पर केन्द्रित क्षणिकाएँ-
01. हज़ारों/नन्हें-नन्हें पुरज़े/लिख मारे/प्रेम-मतवारे वसन्त ने/धरती के नाम/अब/इधर-उधर/हवा में/उड़ते फिर रहे हैं। (डॉ. सुधा गुप्ता)
02. बिटिया ने/ऊपर को/पत्थर जो उछाला/नीचे को बैठ गया/सूरज बेचारा/छिप गया/डरपोक खरगोश सा दिन। (डॉ. बलराम अग्रवाल)
03. लहर की हर उठन पर/सज रहे हैं बुलबुलों के/श्वेत मोती/और सागर का गहन स्वर/छेड़ता है सब दिशाएँ। (पूर्णिमा वर्मन)
04. बच्चों की मस्ती देखकर/जाड़ा भी/उछलकूद करने लगा/बच्चों से/दोस्ती करने लगा! (चक्रधर शुक्ल)
05. धूप/धरती से/मिलने चली/आज/कोहरे की/एक न चली! (डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’)
प्रेमानुभूति की क्षणिकाएँ-
01. जाने कौन सा क्षण था/वह.../जब छुआ था तुमने/और/गुनगुना उठा था मैं/अनायास ही। (डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’)
02. क्षण भर को/धुएँ में से/सूरज का चमकना/और उस पर तत्काल/रुई से सफ़ेद/बादल का तैर जाना/ /मुझे याद है/तेरा उदास रहना (अनिल जनविजय)
03. तुझसे मिलना/फ़िर बिछड़ना/बेजार होना/और फ़िर हँस पड़ना/काफ़ी नहीं क्या/निशानी प्रेम की! (शोभा रस्तोगी शोभा)
विद्रोह को स्वर देती क्षणिकाएँ-
01. दिसम्बर की रात में/जलते अलाव को देखकर/डरें नहीं राजन!/ लोग ठंड भगा रहे हैं/अँधेरा नहीं! (निरंजन श्रोत्रिय)
02. अक्षर गुम गए तो क्या/आत्मा तो नहीं मरी/तुम फिर एक कलेवर चढ़ा दो/जिस्म बन जायेगा। (राजवन्त राज)
सामाजिक व व्यवस्थागत विसंगतियों पर केन्द्रित क्षणिकाएँ-
01. आग में/गोता लगाती बस्तियाँ/इस सदी की/यह निशानी बहुत खूब! (रामेश्वर काम्बोज हिमांशु)
02. घिरा रहा/शुभ-चिन्तकों से/बिछा रहा/जब तक सड़क सा!/खड़ा हुआ तन कर/एक दिन/अकेला रह गया/दरख्त सा! (सुरेश यादव)
03. मैं देखता हूँ/मासूम बकरियों के झुण्ड/उनकी/देह सहलाते हुए चीते/और थर-थर काँपता जंगल! (नारायण सिंह निर्दोष)
04. जिसे पढ़ना नहीं आया/उसके हाथ/ज़िन्दगी का उपन्यास पड़ गया/ढीली पड़ी साँसों की जिल्द/पृष्ठ-पृष्ठ उड़ गया। (डॉ. पंकज परिमल)
05. दिखाता सचित्र समाचार/लूट, हत्या और बलात्कार/नश्तर कर देता आर-पार/सुबह का ताजा अखबार.... (कमला निखुर्पा)
06. जाकर चाँद पर/आदमी/मिट्टी ले आया है/आज तक/आदमी, आदमी तक/नहीं पहुँच पाया है! (रमेश कुमार भद्रावले)
07.  जिन्दगी को जिया मैंने/इतना चौकस होकर/जैसे कि नींद में भी रहती है सजग/ चढ़ती उम्र की लड़की/कि कहीं उसके पैरों से/चादर न उघड़ जाए। (अलका सिन्हा)
08. गिर चुका पर्दा/रंग-मंच का/जा चुके दर्शक/किंतु/शेष है नाटक अभी! (नित्यानंद गायेन)
राजनीति पर केन्द्रित क्षणिकाएँ-
01. मैं एक दिन में/कई बार चढ़ जाता हूँ/ताँवाखाड़ी की/चोटी पर,/और कई बार/गिर जाता हूँ/कान्टीनेन्टल की खाई में। (बेचैन कण्डियाल)
02. कहते हैं/इतिहास अपने को दुहराता है/एक बार फिर धृतराष्ट्र की महत्वाकाँक्षा ने/राष्ट्र को दस्तक दी है। (रजनी साहू)
महिलाओं की स्थिति से जुड़ी क्षणिकाएँ-
01. जन्म दे/जीवन सजाती,/घर से संसद तक/चलाती,/फिर भी ‘अबला’!/आज के उत्कर्ष में भी,/क्यों भला? (डॉ. मिथिलेश दीक्षित)
02. रुको राम/सीता को वनवास देने से पहले/सोचो कि-/धोबी के कलंक से बचने का/तुम्हारा यह तरीका/क्या तुम्हें फिर कलंकित न करेगा...?  (प्रेम गुप्ता ‘मानी’)
माँ पर केन्द्रित क्षणिका-
01. पढ़ी-लिखी/नहीं है माँ/पर चेहरा/पढ़ लेती है/गाली देना तक/नहीं आता/लेकिन बेटे के/खातिर/ज़माने से/लड़ लेती है। (शिव डोयले)
अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़ी क्षणिकाएँ-
01. उस देश की उदास प्रजा में,/एक चेहरा अभी भी मुस्कुरा रहा था,/शायद औद्योगीकरण/अभी भी अधूरा था! (डॉ. हरि जोशी)
02. आधी रात को सो रहे हैं सब/पर समुद्र ले रहा है करवटें/समझने की कोशिश करो/उसके दर्द को। (रूप देवगुण)
03. छुइयो राम, छुइयो राम/धोबी के पटा/पत्थर है, पत्थर तू/पर देख तो ज़रा/धोबी तेरा आज-/ कितने टुकड़ों में बँटा! (डॉ. उमेश महादोषी)
04. पहले पत्थरों से लड़ी/फिर उनकी रज से,/नहीं लड़ पाई/आदमी के लालच से/विष्टा से भरी/अब/नदी बहुत बीमार रहती है/पर देखो जिजीविषा उसकी-/नदी अब तक बहती है। (डॉ. सुरेश सपन)
05. निष्कंप थी लौ/दृढ़ विश्वास संग/कुछ यूँ जली/आँधियों की कोशिश/नाकाम कर गई। (ऋृता शेखर ‘मधु’)
संवेदना, पीड़ा व अन्य जीवनानुभूतियों को अभिव्यक्त करती क्षणिकाएँ-
01. टूटे काँच के टुकड़े तो/तुमने उठा लिये/उनका क्या जो/मेरे दिल के हुए। (सुदर्शन रत्नाकर)
02. बरसों बाद भी/नहीं उधड़ी है चुप्पी की सीवन/बाबुल तेरे घर से विदा होते वक़्त/जो मैंने सिल लिया था होंठों को....  (हरकीरत हीर)
03. बहुत कन्फ्यूज़ हूँ/एक प्रश्न का उत्तर दे-/मुझे धरती क्यों बनाया?/जबकि मन/इंसानी...  (डॉ. जेन्नी शबनम)
04. मेरे माथे पर/हल्दी कुमकुम का टीका है/कल मेरे सपने में/शायद फिर से आई थी माँ। (रचना श्रीवास्तव)
05. वही मोड़/फिर वही आवाज़/ठहरी रात/सुबह का सूरज/रौशनी/फिर सब खतम। (अनीता कपूर)
06. उसने जो खटकाई साँकल/सिहर उठा था/माँ का आँचल/माँ की गोदी सर रख कर/न कौंधेगी, न गरजेगी/आज वो केवल बरसेगी.....  (शशि पाधा)
07. आँखों में/अनुरोध लिये/उसने कहा ‘माँ’/मेरा जन्म दिन/कुछ ऐसे मनाना/आप आज मुझे/अकेले न सुलाना। (डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा)
08.  महानगर की/वो छोटी-सी लड़की/पता भी न चला.../जाने कब/बड़ी हो गई?/किसी के विरोध में/भीड़ के साथ/वो भी खड़ी हो गई! (ज्योत्स्ना प्रदीप)
नवोन्मेष पर केन्द्रित क्षणिका-
01. प्रथम पुरुष - हाजिर!/द्वितीय पुरुष - हाजिर!/तृतीय पुरुष - हाजिर!/चतुर्थ पुरुष - ‘मैं’/रोबोट जोरों से चिल्लाया/सृजन का नया जिह्ना/फूट पड़ा! (शिबराज प्रधान)
समकालीन कवियों का क्षणिका सृजन एवं प्रकाशन
      यद्यपि क्षणिका सृजन काफी समय से हो रहा है तदापि कोई ऐसा रचनाकार दिखाई नहीं देता, जिसने अपना समग्र या अधिकांश सृजन केवल क्षणिका में ही किया हो। इस तथ्य के बावजूद वर्तमान में क्षणिका सृजन में सैकड़ों समकालीन कवि सक्रिय दिखाई देते हैं। हाँ, क्षणिका-संग्रह एवं संकलन बहुत कम देखे गये हैं। जो देखने में आये हैं, उनमें भी कई रचनाकारों ने अपनी ही क्षणिकाओं को छोटी कविता कहा है। कुछ रचनाकारों को क्षणिका की प्रवृत्तियों एवं मौलिक पहचान को स्वीकार करने में संकोच रहा है, तो कुछेक अन्यान्य कारणों से अपनी इन पुस्तकों को क्षणिका-संग्रह कहने से बचते दिखाई देते हैं। डॉ. सुरेन्द्र वर्मा जी के अनुसार गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की छोटी-छोटी रचनाओं का संग्रह ‘क्षणिका’ नाम से प्रकाशित हुआ था। इसके अलावा 1990 तक संभवतः कोई ऐसा एकल संग्रह नहीं आया, जिसे विशुद्ध रूप से क्षणिका-संग्रह कहा जा सके। 1991 में डॉ. उमेश महादोषी का क्षणिका-संग्रह ‘आकाश में धरती नहीं है’ आया। इसके बाद समकालीन रचनाकारों में डॉ. मिथिलेश दीक्षित, डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, डॉ. वी. एन. सिंह, रमेश कुमार भद्रावले, केशव शरण, चक्रधर शुक्ल, नरेश उदास, शिव डोयले आदि के क्षणिका-संग्रह मेरे देखने में आये हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य समकालीन रचनाकारों के क्षणिका-संग्रहों का उल्लेख भी जितेन्द्र जौहर के ‘सरस्वती सुमन’ एवं ‘अविराम साहित्यिकी’ के क्षणिका विशेषांकों में प्रकाशित आलेख में किया गया है, इनमें जय कुमार रुसवा, माता प्रसाद शुक्ल, मिश्रीलाल जायसवाल, रश्मि प्रभा शामिल हैं। सरोजनी प्रीतम की हास्यपरक रचनाओं (हँसिकाओं) के संग्रहों की चर्चा भी जितेन्द्र जी ने की है, किन्तु उन्हें क्षणिका-संग्रह के तौर पर स्वीकार नहीं किया है।
      पत्र-पत्रिकाओं में भी ऐसी बहुत कम हैं, जिन्होंने क्षणिका के साम्प्रतिक स्वरूप को स्वीकार करके उसे स्थान दिया हो। बड़ी पत्रिकाओं में कादम्बिनी ही ऐसी है, जिसका क्षणिका प्रकाशन में योगदान अविस्मरणीय है। दैनिक समाचार पत्रों में बरेली व सहारनपुर से प्रकाशित ‘दैनिक विश्वमानव’ ने क्षणिकाओं के साथ क्षणिका विषयक आलेख भी प्राप्त होने पर प्रकाशित किए। हाल ही में दैनिक जागरण ने अपनी साप्ताहिक परिशिष्ट ‘पुनर्नवा’ में क्षणिका स्तम्भ में एक क्षणिका देना आरम्भ किया है। इसके अलावा तो क्षणिका को प्रकाशन जगत में कतिपय लघुपत्रिकाओं ने ही पाला-पोषा है। इन लघुपत्रिकाओं ने ही इस विधा पर विशेषांकों की पहल भी की है। अंकुर आवाज पहली पत्रिका रही, जिसने 1988 में क्षणिका विशेषांक प्रकाशित किया। इसके अतिरिक्त अविराम (2011)/अविराम साहित्यिकी (2013), सरस्वती सुमन (2012) एवं शब्द प्रवाह (2013) ने क्षणिका पर विशेषांक दिए हैं। ‘आहट’ (संपादन: बलराम अग्रवाल/उमेश महादोषी) नाम से क्षणिका पर एक पूर्ण लघु पत्रिका निकालने का प्रयास हुआ, लेकिन उसके प्रवेशांक (अप्रैल 1989) के बाद दूसरा अंक नहीं आ पाया। उसी प्रयास को अप्रैल 2016 में पुनः ‘समकालीन क्षणिका’ (संपादन: डॉ. बलराम अग्रवाल/डॉ. उमेश महादोषी) नाम से आरम्भ किया गया है। ‘समकालीन क्षणिका’ इंटरनेट पर भी ब्लॉग (http://samakalinkshanika.blogspot.com) रूप में प्रत्येक रविवार को प्रकाशित हो रही है।
      इंटरनेट पर क्षणिका पर काम धीरे-धीरे बढ़ रहा है। पूर्णिमा वर्मन, उमेश महादोषी, हरकीरत हीर, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रश्मि प्रभा, जितेन्द्र जौहर, रमेश कुमार भद्रावले, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ आदि कई रचनाकार अपने ब्लॉग/वेब पत्रिकाओं पर क्षणिकाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ वाट्स एप एवं फेसबुक पर क्षणिकाकारों के समूह भी संचालित कर रहे हैं। लेकिन इंटरनेट व सोशल मीडिया पर क्षणिका के साम्प्रतिक रूप के अध्ययन में विशेष सावधानी आवश्यक है। वहाँ क्षणिका के नाम पर हास्य, वक्तव्यों की प्रस्तुति एवं दोहराव बहुत अधिक है।
क्षणिका विमर्श से जुड़ा कार्य
      क्षणिका विमर्श पर हुआ कार्य या तो संग्रहों-संकलनों की भूमिकाओं में शामिल है या फिर लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है। आठवें दशक में क्षणिका संकलन ‘सीपियाँ और सीपियाँ (1987), अंकुर आवाज (मई-अगस्त 1988) के क्षणिका विशेषांक, क्षणिका की लघु पत्रिका ‘आहट’ (अप्रैल 1989) के संपादकीयों के साथ स्वयं के एकल क्षणिका संग्रह ‘आकाश में धरती नहीं है’ की भूमिका में उमेश महादोषी के क्षणिका की पहचान, विधागत स्वभाव आदि पर विचार शामिल हैं। इसी दौरान महादोषी एवं बलराम अग्रवाल के कुछ आलेख दैनिक विश्वमानव ने प्रकाशित किए थे। आहट में इन दोनों के अलावा रामकृष्ण विकलेश व नाथूराम त्यागी की टिप्पणियाँ प्रकाशित हुई थीं। अविराम के विशेषांक (जून 2011) में डॉ. बलराम अग्रवाल का ‘क्षणिका का रचना विधान’ तथा उमेश महादोषी का ‘क्षणिका की सामर्थ्य’ आलेख प्रकाशित हुए। सरस्वती सुमन (अक्टूबर-दिसम्बर 2012) के क्षणिका विशेषांक में इन दोनों आलेखों के साथ संपादकीय में हरकीरत हीर के विचार, जितेन्द्र जौहर का आलेख ‘क्षणिका: एक विधागत विवेचन’, डॉ. सुन्दर लाल कथूरिया का आलेख ‘क्षणिका: संवेदना और शिल्प’ तथा शुभदा पाण्डेय की टिप्पणियाँ प्रकाशित हुई हैं। अविराम साहित्यिकी (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) के क्षणिका विशेषांक में डॉ. कमल किशोर गोयनका, डॉ. सतीश दुबे, डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, जितेन्द्र जौहर, डॉ. पुरुषोत्तम दुबे, नित्यानंद गायेन, डॉ. शेलेष गुप्त ‘वीर’,  शोभा रस्तोगी ‘शोभा’ के क्षणिका विषयक आलेखों के साथ क्षणिका के विभिन्न पहलुओं पर डॉ. डी.एम. मिश्र, डॉ. शरद नारायण खरे, चक्रधर शुक्ल, रमेश कुमार भद्रावले, गुरुनाम सिंह रीहल, गौरीशंकर वैश्य विनम्र व राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ की टिप्पणियाँ शामिल हैं। इसके अलावा इस विशेषांक में पाँच चुनी हुई क्षणिकाओं पर डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ का समग्र विश्लेषणपरक आलेख एवं उनमें से प्रत्येक क्षणिका पर क्रमशः डा. सुधा गुप्ता, हरनाम शर्मा, डॉ. बलराम अग्रवाल, प्रशान्त उपाध्याय एवं डॉ. ज्येात्स्ना शर्मा की विश्लेषणपरक टिप्पणियाँ, जो क्षणिका विशेष के रचनात्मक पक्षों को स्पष्ट करती हैं, भी शामिल हैं। इस विशेषांक का क्षणिका विमर्श पर यह सम्पूर्ण कार्य इंटरनेट पर अविराम ब्लॉग (लिंक- http://aviramsahitya.blogspot.com पर ‘क्षणिका विमर्श’ स्तम्भ में) पर उपलब्ध है। इनमें से हिमांशु जी का आलेख गद्यकोश पर भी उपलब्ध है। डॉ. मिथिलेश दीक्षित के क्षणिका-साहित्य पर एक समीक्षात्मक पुस्तक भी डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के संपादन में आई है, जिसमें क्षणिका पर कुछ सामान्य टिप्पणियाँ भी हैं। विशुद्धतः क्षणिका विमर्श सम्बन्धी अन्य कार्य मेरी जानकारी में नहीं आया है। यह कार्य क्षणिका को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, लेकिन अध्ययन करते हुए सावधानी आवश्यक है। इन आलेखों एवं अच्छी क्षणिकाओं के अध्ययन के बाद आरम्भिक काव्य प्रतिभा से सम्पन्न कोई भी व्यक्ति अच्छा क्षणिकाकार बन सकता है।

  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004

1 comment:

  1. क्षणिका सृजन पर बहुत उपयोगी ,सारगर्भित आलेख !
    हार्दिक बधाई !!

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